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रघुवरजसप्रकास
[ २४१ कंज सरभर समुख कोमळ, कान झगमग हरि कुंडळ ।
नयण परसत पत्र निरमळ, दूठ राम दुबाह ॥ भुजा बळ खळ भंज भारथ, अथघ अपहड़ ब्रवण किव अथ ।
सरब बातां वणे समरथ, धार बांण धनंख ॥ कहै मुख मुख जगत जस कथ, असुर समहर नाथ ऊनथ ।
दुझल राघव सुतण दसरथ, लियण भुजबळ लंक ॥ घड़ण नोखा घाट अणघट, वणै लंगर पाय रिणवट ।
घणूं व्यापक ईस घट घट, संत कारज सार ॥ मेल दळ घण रीछ मरकट, पाज बंध समंद जळ पट ।
खळां सबळां भंज खळ खट, विजै कर रणवार ॥ बिहद भूपत सीत वाहर, जार दस सिर समर जाहर ।
थरर लंका जिसा थाहर, विसर त्रंबक वाज ॥ नेतबंध रघुनंद नाहर, छत्री सरण हित ऊछाहर । __ भभीखण कर लंक स्रीवर, मौज की महराज ॥१४०
अथ गीत भाखड़ो लछण
दूहा एक दवाळी अंकणी, औ पैला कर प्रेम । ग्यार मत्त धुर नव दुती, निज ग्यारह नव नेम ॥१४१ अवर दवाळां वीस खट, तुक प्रत मत्त तवंत । मिळे च्यार तुक अंत लघु, किव भाखड़ी कहंत ॥ १४२
१४०. कंज-कमल । सरभर-समान। झगमग-दमक-चमक । हीर-हीरा । दूठ-जबरदस्त ।
दुबाह-वीर। भंज-नाश कर। भारथ-युद्ध । अथघ-अपार । अपहड़-दानवीर, दातार । ब्रवण-दान देने वाला। किव-कवि। अथ (अर्थ)-धन-दौलत । नाथनाथना, वशमें करना। ऊनथ-वह जो बन्धनमें न हो, उद्दण्ड । दुझल-वीर । सुतण
पुत्र। लियण-लेने वाला। १४१. दवाळी-गीत छंदके चार चरणका समूह । ग्यार-ग्यारह । मत्त-मात्रा।
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