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रघुवरजसप्रकास
[ २२५ सूरजवंसतणौ नप सूरज, पाधर आसुर पंजै ।
रे गह गंजै ॥ जिण जीता रे जिण जीता, भड़ रांवण कुंभ अभीता । आस्रय राख भभीखण आतुर, लाख मुखां जस लीता ॥ भार ग्रहे घणनाद जिसा भट, चौपट मार अचीता ।
रे जिण जीता ॥ जग जाणै रे जग जांणै, जिण लंक ब्रवो जग जाणै । स्री-मुख दाख सुकंठ सहोदर, राख प्रभाव घरांणै ॥ कारुणस्यंध किकंध पते कर, बाळ हतै रिण बाणै ।
रे जग जाण ॥ जस जापै रे जस जापै, ते संत हरे त्रिण तापै । संघट तोड़ अघां घण स्रीरंग, कौड़ जमांभय कांपै ॥ आसा राघव पूर अनेकां, थानक दासां थापै ।
रे जस जापै ॥१०८ अथ लघु चितविलास लछण
चवद चवद मत च्यार तुक, अठ मत पंचम आंण ।
बि गुरु अंत आवरत तुक, चित विलास पहचांण ॥ १०६ १०८. सूरजवंशतणौ-सूर्य वंशका । पाधर-खुला मैदान । प्रासुर-राक्षस । पंजे-ध्वंश करते
हैं। जिण-जिस । भड़-योद्धा । कुंभ-कुंभकर्ण । अभीता-वह जो डरे नहीं, निशंक । प्रास्त्रय-शरण । भभीखण-विभीषण। प्रातुर-दुखी। लीता-लिया। घणनादमेघनाद, इन्द्रजीत । भट-योद्धा। चौपट- नाश, ध्वंश। अचीता-बिना चिंता । लंक-लंका। वीवी-दान दे दी। स्री-मुख-स्वयं, खुद । दाख-कह । सुकंठसुग्रीव । सहोदर-भाई। घराण-वंशका, वंशमें। कारुणस्यंध-करुणासिंधु, कृपासागर। किकंध-किष्किधा। पते-पति, स्वामी। बाळ-बालि नामक बंदर । हस-संहार कर । जापै-वर्ण करते हैं, जपते हैं। ते-उस । त्रिण-तीन । तापै-ताप, कष्ट । संघटदुख । तोड़-मिटा कर, नाश कर । अघां-पापों। घण-बहुत, अधिक। स्त्रीरंग
विष्णु, श्रीरामचंद्र । जमां-यमराजों। थानक-स्थान। दास-भक्त। थाप-स्थापन करता है। १०६. चवद-चौदह । अठ-पाठ। प्रांण-ला, रख । बि (द्वि)-दो । प्रावरत-आवर्त, आवृत्ति ।
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