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रघुवरजसप्रकास अथ गीत गोख लछण
दूही धुर तुक मत तेवीस धर, अवर वीस लघु अंत । चौथी तुक बे वीपसा, कवि ते गोख कहत ॥ ६३
प्ररथ चौथी तुकमें दो वीपसा होय । मात्रा प्रमाण कहां छां। पाद पैलरी तुक मात्रा तेवीस होय । पाछली पनरैई तुकां मात्रा वीस वीस होय । तुकांत लघु अखिर आवै, अथवा नगण पावै, जी गीतनै गोख कहीजै। एक सबदनै दोय बार कहै सौ वीपसा कहावै ।
अथ गीत गोख जात सावझडाको उदाहरण
गीत
तनै कहं समझाय मतमंद जग फंद तज । अरप तन मन सुध न वेग सुणसी अरज ॥ उभै साचा अखर कहै रिख सिंभ अज । हरी भज हरी भज हरी भज हरी भज ॥ लछीरा चहन घण वीज वाळी लपट । क्रोध ममता नता मूढ तज रे कपट ॥ झौड़ मत कर अवर काळ लेसी झपट । रांम रट राम रट राम रट राम रट ।। काटसी घणा अघ ओघवाळा करम ।
बेध नह सके जम पहर इसड़ौ वरम ॥ ६३. धुर-प्रथम । मत-मात्रा । वीपसा (वीप्सा)-एक शब्दालंकार जिसके अर्थ या भाव पर
बल या शक्ति लगाने से होने वाली शब्दापत्ति । कहत-कहते हैं। पाछली-पीछे की,
बाद की। जी-जिस । ६४. तनै-तुझको। मतमंद (मतिमंद)-मूर्ख । फंद-जाल। रिख-ऋषि । सिंभ--शंभू,
शिव । अज-ब्रह्मा । लछीरा-लक्ष्मीके । चहन-चिन्ह । घण-बादल । वीज-बिजली। लपट-चमक । काळ-यमराज । घणा-बहत । अघ-पाप। प्रोघ-समूह । नह-नहीं। जम-यमराज । इसड़ी-ऐसा । वरम-कवच ।
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