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रघुवरजसप्रकास
[ २०६ देव दीन दयाळ । निरवहै व्रत हेक नारी, धींगपांण धनंखधारी ।
प्रगट संतां पाळ ॥ चुरस मारग नीत चालै, घाघ भागां निकं घालै ।
समरसं रस धीर ॥ वीरवर दासरथ-वाळी, कळह आसुर अंत काळौ ।
बिरद धारण बीर ॥ छत्रपत अनी मांण छंडे, खत्र रख हर चाप खंडे ।
जानकीवर जेण ॥ राय हर पण जनक राखै, सूर ससि रिख देव साखै ।
मुणै जस प्रथमेण ॥ तोयधी गिरराज तारे, प्रगट कर कपि सेन पारे ।
रची लंका राड़ ॥ दसाणण घणराव दाहे, गहर कुंभ अरोड़ गाहे ।
धींग राघव धाड़ ॥ ८४
८४. निरवहै-निभाता है। धींगपांण-समर्थ, शक्तिशाली। धनंखधारी-धनुषको धारण
करने वाला । पाळ-पालक, रक्षक । चुरस-श्रेष्ठ । नीत-नीति । घाव-प्रहार, वार । निक-नहीं। समरसू-युद्धसे । दासरथ-वाळी-दशरथका। छत्रपत-छत्रपति, राजा । अनी-अन्य । मांण-गर्व, मान । छंडे-छोड़ देते हैं। चाप-धनुष । खंडे-खंडित किया। पण-प्रण। सर-सूर्य । ससि-चंद्रमा। रिख-ऋषि । साखै-साक्षी देते हैं। मुणेकहते हैं, वर्णन करते हैं। प्रथमेण-पृथ्वी, संसार । तोयधी (तोयधि)-समुद्र, शागर । गिरराज-पर्वतराज। कपि-बंदर । सेन-सेना, फौज । राड-यूद्ध । दसाणण-दसानन, रावण । घणराव-मेघनाद, इन्द्रजीत । दाहे-संहार किया। गहर-महान, गंभीर । कुंभ-रावणका भाई कुंभकर्ण । अरोड़-जबरदस्त, शक्तिशाली। गाहे-ध्वंश किया । धींग-समर्थ । धाड़-धन्य ।
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