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रघुवरजसप्रकास
[ १६७ कोपियां बाळ सुगरीव छंडे कळह , घरोघर भटकियौ विपत घायौ । पांण ग्रह राम कहि मित्र अपणावतां , पय सरण आवतां राज पायौ ॥ बन पिता हुकम जुत सिया चवदह बरस , एक आसण सयन जोग जगीयौ । धण बिनां चल मन रांम सह त्रिया धन , द्रढ मदन ताप मन निकं डिगीयौ ॥ अंजसै कनक भूखण पहर नप अवर , कनकमें विधाता कुट कीधी । लहर हिक सरण हित भभीखण रंक लख , दान गढ लंक अणसंक दीधी ॥ स्रत सम्रत छंद खट पंच नव संपूरण , भेदगर च्यार दस बोध भाळी । अरथ जुत बोलबौ हेळ बीजा 'अजा' वेळ अम्रततणा उदधवाळी ॥ दासरथ सुजस नव खंड जाहर दुझल ,
करां भुजदंड वाखांण केहा । ६३. बाळ-बालि बंदर। कळह-यूद्ध । घरोघर-प्रत्येक घर। भटकियो-भ्रमण किया।
घायौ-पीडित, दुखी। पांण-हाथ । अपणावता-अपना बनाने पर। पय (पाद)चरण । पायौ-प्राप्त किया। जुत-युक्त । सिया-सीता । सयन-सोना। धणअर्धांगिनी। सह-साथ । त्रिया-स्त्री। मदन-कामदेव । निकुं-नहीं। अंजसै--गर्व करते हैं। कनक-स्वर्ण, सोना। भूखण-ग्राभूषण । प्रवर-अन्य। विधाता-ब्रह्मा । त्रिकुट-लंका स्थित एक पर्वत अथवा लंकाका एक नाम । कीधी-की, किया। भभीखणविभीषण । रंक-गरीब । लख-देख कर । अणसंक-निशंक । दीधी-दी। न त (श्रति)-वेद । सम्रत-स्मति । भेदगर-भेद जानने वाला, भेदका पता लगाने वाला। बोध-विद्या। भाळी-देखी। वेळ-तरंग, लहर । उदध (उदधि)-सागर । दासरथश्रीरामचंद्र भगवान । जाहर-जाहिर । दुझळ-वीर । केहा-कैसा।
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