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रघुवरजसप्रकास
दूहौ
धुर उगणीसह कळहधर, अन तुक सोळह ठाह ।
गण जिण अंतकरण गण, सौ जयवंत सराह ॥ ५३ अथ गीत जयवंत सावझड़ौ उदाहरण
गीत
तीकम पाळगर जन रात दिनां मुख नांम
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देवतरौ सौ ररौ सौ ॥
सरौ सौ I भरोसौ ॥
समरण त्रास कीनास भारी राघवतणौ जोय ग्री कपि कारज दे द्रग सवरी गौहद सारै ॥
सारै
थं विसवास राख मन थारै सांमळियौ जन नौज विसारै ॥ गाढौ प्रसन रहै जस गायां । बाधार ईजत बिरदायां ॥ ऊगै नहीं अरक दिन आयां । सीताबर भूलै पर प्रहळादतणी वळ धू अखी कियौ
सरणायां ॥
प्रतपाळी | वनमाळी ||
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५३. धुर-प्रथम । उगणीसह उन्नीस । कळह - मात्रा, कला । अन - अन्य दूसरी । ठाह-रख । करण - दो दीर्घ मात्राका नाम । सराह - प्रशंसा कर ।
५४. तीकम (त्रिविक्रम) - विष्णु, ईश्वर । पाळगर - पालनकर्ता ।
जन-भक्त । देवतरौदेवताका | ररौ-र ग्रक्षर जो राम नाममें प्रथम प्राता है भारी-बड़ा, महान । राघवतणौ- रामचंद्रका | भरोसौ - विश्वास । सवरी - भिल्लनी । गौहद-गुह नामक निषादराज जो रामका भक्त था । थू-तू । विसवास - विश्वास । थारै तेरे । सामलियाँश्रीकृष्ण | नौज - नहीं । विसारं भूलता है, विस्मरण करता है । गाढौ - गहरा, पूर्ण । प्रसन - प्रसन्न, खुश । श्ररक ( अर्क) - सूर्य । सीताबर- श्रीरामचंद्र | सरणायां- शरण में आए हुए, भक्त । पर - प्ररण, प्रतिष्ठा, मान, इज्जत । प्रहळादतणी-भक्त प्रह्लादकी । प्रतपाळी - पालनकी, निभाई । वळ- दैत्यराज वलि । धू -भक्त ध्रुव । श्रखी - अमर । वनमाळी - श्रीकृष्ण ।
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