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रघुवरजसप्रकास कोड़ अघ ओघ जिण नाम अरधै कट। रे ‘किसन' खांत कर क्यं न तिणनै रटै ।। १२५ अथ सौल अखिर छंद ब्रद्धिनाराज
(ज.र.ज र.ज.ग.) न रूप रेख लेख भेख तेख तौ निरंजणं । न रंग अंग लंग भंग संग ढंग संजणं ॥ न मात तात भ्रात जात न्यात गात जासकं । प्रचंड बाहु डंड रांम खंड नौ प्रकासकं ॥१२६
दहौ पांच भगण गुरु अंत पद, सौ पद-नील सुछंद। गुरु लघु क्रम सोळह वरण, कहि चंचळा कव्यंद ॥१२७
छंद पदनील (भ.भ.भ.भ.भ.ग.) कौड़क तीरथ राज चिहं दिस धाय करै । सौ लख कौड़ अखंड वडा व्रत जे सुधरै ॥ ज्याग महा असमेध धरादिक दांन जते । तौ पण रांम प्रमाण तणै तिल जोड़ न ते ॥ १२८
१२५. परध-प्राधा। खांत-विचार । तिण-उस । . १२६. ब्रद्धिनाराज-बृहद नाराच । भेख (भेष)-पहनावा। तेख-तीक्ष्णता, क्रोध । तौ-तेरा।
निरंजणं-मायारहित, दोषरहित, परमात्मा! लंग (लिंग)-चिन्ह । मात-माता । तात-पिता । गात (गात्र )-शरीर। जात-जाति । न्यात (ज्ञाति )-जाति ।
जासकं-जिसके । खंड-देश । नौ-नव । नोट-वहदनाराच छंदका दूसरा नाम पंचचामर भी है। ग्रंथकर्त्ताने इसके लक्षणमें प्रथम
लघु फिर गुरु इस क्रमसेसोलह वर्ण माने हैं। १२७. सौ-वह । पद-नील-छंदके नाम । इस छंदके अन्य नाम नील, अश्वगति, लीला और
विशेषक भी मिलते हैं। चंचळा-छंदका नाम विशेष । इस छंदका दूसरा नाम चित्र भी मिलता है । ग्रंथकर्त्ताने प्रथम गुरु फिर लघु इस क्रमसे सोलह वर्णका प्रत्येक चरण
माना है। कब्यंद (कवीन्द्र)-महाकवि । १२८. कौड़क-करोड़ । चिह-चारों। दिस-दिशा। धाय करै-दौड़ करे, प्ररिभ्रमण करे ।
जे-जो, अगर । ज्याग-यज्ञ । असमेघ-अश्वमेध यज्ञ । धरादिक-भमि प्रादि । जतेजितने। तो पण-तो भी। जोड़-बराबर, समान । ते-वे ।
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