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________________ रघुवरजसप्रकास [ १४७ छंद चंचला (र.ज.र.ज.र.ल.) देव देव दीन नाथ राज राज स्त्री दयाळ। वासुदेव विस्वदेव वंदनीक नै विसाळ ॥ नारसींध नार त्रैण नरांनाह नाभकंज। रांमचंद्र राघवेस रूपरास रमा रंज ॥१२६ अथ सतरै वरण छंद जात यिस्टी जगण सगण जगणह सगण, यगण ध्वज जिण अंत। सुजस रांम 'किसनौ' सुकव, प्रथ्वी छंद पढंत ॥ १३० छंद प्रथ्वी (ज.स.ज.स.य.ल.ग.) महा सुगण रूप है सुचित सार आचारमें। सखां कवण जोड़ जे, अघट आज संसारमें ॥ यळा सह वदै यसौ सुजन रांम साधार है। पुणां जस जिकै पढौ सुज कथा स आसार है ॥१३१ १२६. वासुदेव-वसुदेवके पुत्र, श्रीकृष्ण । विस्वदेव-ईश्वर । वंदनीक-वंदनीय । न-और । विसाळ-(विशाल) महान, बड़ा। नारसींघ-नृसिंहावतार । नरांनाह-नरनाथ । नाभकंज-नाभिमें जिसके कमल, विष्णु । रूपरास-रूपकी राशि। रमा-लक्ष्मी। रंज-प्रसन्न करने वाला, सन्तुष्ट करने वाला। नोट--चंचला छंदके तृतीय चरणमें छंदोभंग दोष है। १३०. सतर वरण छंद-सप्तदशाक्षरावृत्ति । जात यिस्टी-यहां पर मूल प्रतिमें यिस्टी लिखा मिला परन्तु यहां पर अति अस्टी या अति यिस्टी शब्द होना चाहिए था। सत्रह वर्गों की वर्ण वृत्तिका शुद्ध नाम अत्यष्टि है जिसके अन्तर्गत शिखरणी, हरिणी, पृथ्वी, मन्दाक्रांता आदि छंद होते हैं जिनकी कुल संख्या १३१०७२ तक होती है। ध्वज-प्रथम लघु फिर गुरु मात्राका नाम। जिण-जिस । पढंत पढ़ता है। १३१. सुगण-(सगुण) सत्व, रज और तम तीनों गणों पक्त परमात्माका एक नाम । सार सारांश, अस्त्र-शस्त्र, तलवार । प्राचार-व्यवहार । सखां-कहते हैं। कवण-कौन । जोड़-समान । जे-जिस । अघट-अद्वितीय । यता (इला)-पृथ्वी । सह-सब । वदैकहते हैं। यसौ-ऐसा । सुजन-श्रेष्ठजन, अथवा स्वजन । साधार-रक्षक । पुणांकहता हूँ। जिकै-जिसका । प्रासार-यह सार है, अथवा आश्रय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003420
Book TitleRaghuvarjasa Prakasa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSitaram Lalas
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1960
Total Pages402
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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