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रघुवरजसप्रकास
[ १२७ वसंत ध्यांन मंजगं, ह्रदे महेस कंजयं । तवै ज क्रीत तासयं, जनंम धन्य जासयं ॥ ५२
छद त्वंग तथा तुंग (न.न.ग.ग.) दस सिर खळ दाहं, सुचित सुजन चाहं । जप जप रघुराज, सु भुज समर लाजं ॥ ५३
दूहौ दुजबर जगण सु अंत गुरु, कमळ छंदस कहांण । भगण करण फिर सगण भिळ, मांन क्रीड़सु वखांण ॥ ५४
छंद कमल (४ ल ज ग.) रिव सुनिभ राजही, सुकर धनु साजही । सुकव धर सीस जौ, अवधपुर ईस जौ ॥ ५५
छंद मानक्रीड़ा (भ.ग.ग.स) स्यांम भजै ताम सुखी, दाम भजै और दुखी । सीतपती गाव सदा, राख जिको ध्यान रिदा ॥ ५६
च्यार तुकां लघु पंचमौ, खट आठम गुरु आण । दूजी चौथी सातमौ, लघु अनुस्टुप जाण ॥ ५७
५२. मंजयं-मध्यमें। ह्रदे-हृदय । महेस-महादेव । कंजयं-कमल । तवै-कहता है, स्तवन
__ करता है। क्रीत-कीति, यश। तासयं-उसका। जासयं-जिसका। ५४. दुजबर-चार लघु मात्राका नाम । कहांण-कहा गया। करण-दो दीर्घ मात्राका नाम । ५५. रिव-सूर्य । सुनिभ-समान, ग्राभा, प्रभा । राजही-शोभा देता है। साजही-शोभा देता
है। अवधपुर-अयोध्या । ५६. स्यांम-स्वामी, श्याम, श्रीराम । तांम-बहुत, अधिक । सीतपती-(सीतापति) श्रीराम
चंद्र भगवान । जिको-वह, उस । रिदा-हृदय । नोट--जिसके चारों चरणों में पांचवा अक्षर लघु और छठा अक्षर दीर्घ हो और सम पदोंमें
सातवां अक्षर भी लघु हो, इनके अलावा अन्य अक्षरों पर कोई खास नियम न हो उसे श्लोक तथा अनुस्टुप कहते हैं । ग्रंथकारने जो अनुस्टुपका लक्षण दिया है वह संस्कृतके ग्रंथोंसे मेल नहीं खाता ।
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