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________________ रघुवरजसप्रकास रघुवरजसप्रकास [ १२५ १२५ छंद सबासन (४ ल.भ. अथवा न.ज.ल.) खर खळ खंडण, महपत मंडण । रसण वडापण, रघुवर जंपण ॥ ४४ दुजबर जगण पयेण जिण, सौ करहची सुणंत । सात गुरु पय जास मध, सीखा छंद सुभंत ॥ ४५ छंद करहची (४ ल.ज. अथवा न.स.ल.) लसत चख लाज, सुकर धनु साज । सझण सगरांम, रसण भज राम ॥ ४६ छंद सिखा (७ ग. अथवा म.म.ग.) जाणै सौ राघौ जाणे, ठाणे सौ राघौ ठाणै । जीवाडै राघौ जैनं , तौ मारै केहौ तैनं ॥ ४७ अथ अस्टाखिर छंद वरणण, जात अनुस्टप आठ गुरू पद छंद जिण, विद्युन्माळा अक्ख । गुरु लघु क्रम अठ वरण पद, सौ मल्लिक विसक्ख ।। ४८ ४४. छंद सबासनका ठीक लक्षण नगरण जगरण और एक लघुसे बैठता है परन्तु कविने अपनी दक्षतासे चार लघु और एक भगरण कर दिया। खर-एक राक्षसका नाम । खळ-असुर। खंडण-नाश करने वाला । महपत-(महीपति) राजा । मंडण-आभूषण । रस-जिव्हा, जीभ । जंपण-जपना । ४५. दुजबर-चार लघु मात्रा। पयेण-चरण । पय-चरण ! करहची-इसका दूसरा नाम करहंस है। जास-जिसके । मध-मध्य । सुभंत-शोभा देता है। ४६. लसत-शोभा देता है, शोभा देती है। चख-(चक्षु) नेत्र, नयन । सकर-श्रेष्ट हाथ । धनु-धनुष । सझण-सुसज्जित होने के लिए। सगरांम-युद्ध । रसण-जीभ । ४७. जाणे-जानता है। ठांणै-विचारता है । जावाई-जीवित रखता है। जैनूं-जिसको । केहौ-कौन । तैनं-उसको। ४८. प्रस्टाखिर-अक्षर। अक्ख-कह। अठ-ग्राठ। विसक्ख-विशेष । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003420
Book TitleRaghuvarjasa Prakasa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSitaram Lalas
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1960
Total Pages402
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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