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रघुवरजसप्रकास
[ १०७ गदगद कंठ होय नित हाहा खासी नै प्रांगळी मूंढामें लेसी। जे ते श्री राम आगै ऊभी आंगळी न कीदी, तौ सरीरमें दुख पाय जणा जणा प्रागै ऊभी अांगळी करसी। ऊण ईस्वर निमत यूं कैतां देवाकै वासतै हाथ पांची प्रांगळयांसू ऊंचौ न कीधौ तौ थारै जगत माथामें यूं पांची आंगळयांसू डूचका देसी। यम कैतां प्रभुनै कदी पांच ही आगळ्यांसू चंदण पुसप चढ़ाया अरच्या नहीं, फेर एम कैतां प्रभुरी आरती उतारी नहीं, फेर यम कैतां प्रभुनै नमसकार प्रणांम कीधौ नहीं तौ यूं जम मार देसी, अर कदा'क तें यूं कैतां प्रांगळ्यांसू रात दिन माळा फेरे नै भजन कीधौ छै तौ यूं कहतां बांह पकड़ नै भवसागर मांसू , यूं स्री रघुनाथ उधारसी, इति करपल्लव कवित अरथ ।
अथ हेकल्लवयण छप्पै लछण
यक सौ अर बावन अखर, जठै सरब लघु जाण । एकल बयणौ कवित यं , वदियौ नाग वखांण ॥ २५२
अथ हेकल्लवयण छप्पै कवित उदाहरण तरण सरस छब तरण, सरण असरण हरखरण सक। मरण जनम भय मटण, धरण बड बरद रहत धक ॥ अजर जरण रण असह, दन जद ससर सम वड दह ।
लख दन समपण लहर, कहर चत अघट अथध कह ॥ भल करम मन वतन, अत दलभ, अखत बयण अह नर अमर । कर हरख पहर अठ कव 'कसन', सधर समन रघबर समर ॥२५३
२५१. प्रांगळी-उगुली । कीदी-की। निमत-निमित्त, लिए । वासते-लिए । कोधौ-किया।
डूचका-मुट्री बंद करके मध्यमा उंगलीको इस स्थितिमें रखना जिससे उसका पीछेका जोड़ दूसरी उंगलियोंसे कुछ आगे निकल! हा हो। इस उठे हए भागसे किया जाने
वाला प्रहार या चोट । कदी-कभी। कदाक-कभी। २५२ यक सौ-एक सौ । जठे-जहां । वदियौ-कहा । नाग-शेषनाग । २५३. तरण-तरणि, सूर्य । सरस-समान । तरण-तरुणी। बड-बड़ा। बरद-विरुद ।
धक-इच्छा । रण-युद्ध । असह-असह्य। कहर-कोप । अथघ-अपार । अत दलभअति दुर्लभ । प्रखत-कहता है । अह-नाग । अमर-देवता । रघबर-रघुवर । समरयाद कर, स्मरण कर ।
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