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________________ १०४ ] रघुवरजसप्रकास मह राखण मुरजाद, जादपत पब्बे तार जह ॥ जह दुसह पाळ जन सांमरथ, रथ खगेस मारुत सजव । सज मख सिहाय भंजण सुभुतज,भज रघुबर तर उद्घ भव ॥२४३ अथ छप्पै नाम कवित कुंडळिया लछण दूही पहलां दूही एक पुण, आद अंत तुक जेण । पलटै धुर पूठा कवित, तव कुंडळियौ तेण ॥ २४४ अथ कुंडलिया उदाहरण जपै रसण रघुबर जिकै, अध त्यां कपै अमाण । जनम मरण सुधरै जिकां, जे बड़भागी जाण ॥ जे बड़भागी जाण, लाभ तन पायां लीधौ । त्यां जिग किया तमांम, काम सुक्रत ज्यां कीधौ ॥ वां व्रत किया अनेक, हिरण दे दे विप्रां हथ । ज्यां सधिया अठ जोग, त्यां किया कौटक तीरथ ॥ धन मात पिता जिण वंस धर, कळ ख तिकां दरसणा कपै । कवि 'किसन' कहै धन नर तिकै, जिके रस रघुबर जपें ॥२४५ २४३. मह-महि, पृथ्वी। मरजाद-मर्यादा । जादपत-यादपति, समुद्र । पब्बै-पर्वत । जह जिस । सांमरथ-समर्थ । खगेस-गरुड़। मारुत-पवन । सजव-वेग सहित । मख यज्ञ । सिहाय-सहाय । उदध-उदधि, समुद्र । भव-संसार । २४४. पहलां-प्रथम । पुण-कह । धुर-प्रथम । तव-कह । २४५. रसण-रसना, जिह वा । अघ-पाप । कपै-नाश होते हैं। अमांण-अपार । वडभागी बड़े भाग्यशाली। जांण-समझ। जे-वे, जो। लीधी-लिया। त्यां-उन्होंने । जिग-यज्ञ। तमाम-सब, समस्त। सुक्रत-पुण्य । कोधौ-किया। वां-उन्होंने । हिरण-हिरण्य, सोना। हथ-हाथ । सधिया-साधन किये। अट-जोग-अष्ट-योग । कौटक-करोड़ों। धन-धन्य। मात-माता। कळुख-पाप। तिकां-जिनके, उनके । जिके-जो, वे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003420
Book TitleRaghuvarjasa Prakasa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSitaram Lalas
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1960
Total Pages402
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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