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रघुवरजसप्रकास
[ १०१ नग रज गौतम नार, जेण उधरी जग जाणै।
धनुख भंज सीय बरी, प्रथी भुज जोर प्रमाणे ॥ रे अधम समझ मुख नाम रट, सीत-बर समराथको । कह जीहहं त 'किसना' कवी, नितप्रत जस रघुनाथको ॥ २३३
अथ ब्रधनाळीक छप्पै लछण
दूही उगणीसह चव पद अखिर, अकवीसह बे औण । कवित बधनाळीक कवि, भणै नाग त्रय-भौण ॥ २३४
अथ बधनालीक छप्पै उदाहरण जिण राघव जापियां, थरू घर नवनिध थावत । जिण राघव जापियां, प्रसध ईजत नर पावत ।। जिण राघव जापियां, सुलभ भवसागर तरसी । जिण राघव जापियां, सरब मन कारज सरसी ॥ जापियां जेण रघुबर सुजस, धरै ऊच विरदां धरा । तैं नाम जोड़ नां ज्याग तप, नित राघव जप जप नरा ।। २३५
अथ निसरणीबंध छप्प लछण
दही एक दोय त्रण ऐण क्रम, छप्पय करै वखांण ।
गत जिम चढजे गातियां, निसरणीबंध जांण ।। २३६ २३३. नग-चरण । रज-धूलि । नार-नारी, स्त्री। जेण-जिस । अधम-नीच, पतित ।
सीत-बर-सीतावर, श्री रामचंद्र भगवान । समराथकौ-समर्थका। जीहहंत-जिहासे ।
नितप्रत-नित्यप्रति । २३४. अकवीसह-इक्कीस । बे-दो। औण-चरण । त्रय-भौण-त्रिभवन । २३५. जिण-जिस । जापियां-जपने या भजन करने पर । थरू-स्थिर । नवनिध-नवनिधि ।
थावत-हो जाती है। प्रसध-प्रसिद्धि । पावत-प्राप्त करता है। भवसागर-संसार रूपी समुद्र। कारज-कार्य, काम । सरसी-सफल होंगे, सिद्ध होंगे। जेण-जिस ।
विरद-विरुद, कीर्ति । तै-उस, उसके । जोड़-समान, बराबर । ना-नहीं। ज्याग-यज्ञ। २३६. गत-प्रकार, तरह । गातियां-काष्ट या लोहकी बनी निश्रेणीके बीच-बीच में लगे वे उंडे
जिन पर पैर रख-रख कर चढ़ते व उतरते हैं, पांवदान ।
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