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रघुवरजसप्रकास
। ६७ नर च्यार असी नाचै निकं, निज हरि आगळ नाचियो । जाचणौ जिकां रहियौ न जग, ज्यां रघुनायक जाचियो॥
अथ संकल जात छप्पै लछण एक सबदकी तेवड़ी, व्है आवरत विसेस । कहियौ अह तिण कवितरौ, संकळ नाम कवेस ॥ २२४
सांकळ कवित उदाहरण
छप्पै पूर अपूरिय प्रास, तौ पिण उमरथी पूरिय । हाथ जुड़त तिल चढ़ न, हाथ डुळ हाथ हजूरिय ॥ दिल ऊजळ नर उजळ, लखिन ऊजळ सिर लेखीय ।
दौलत दौलत मिलि न, लगी दो लत द्रिढ़ लेखीय ।। कवि क्रिस्ण क्रिस्ण चित दुरन किय, क्रस्ण जगत देखीय कपट । रे राम मंत्र रट राम रट, राम राम रट राम रट ॥२२५
कमळबन्ध लछण
दही
द्वादस दळ द्वादस तुकां, अखर एक तुक अंत । सौ अधबिच तुक चौतरफ, कमळबंध स कहंत ॥ २२६
२२३. प्रागळ-अगाड़ी, अग्र । जाचणौ-याचना । जिकां-जिनको। २२४. तेवड़ी-तीन वार । प्रावरत-आवृति । २२५. पूर-पूर्ण । अपूरिय-अपूर्ण । पिण-भी। दौलत-परिभ्रमण । दौलत-धन, संपत्ति ।
लेखीय-समझिये। २२६. द्वादस-बारह । दळ-फूलोंकी पंखड़ी। सौ-वह । अधबिच-ठीक मध्यमें। चौतरफ
चारों ओर । स-वह । कहंत-कहा जाता है ।
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