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________________ रघुवरजसप्रकास अवधकं आते दुजराजकं सुद्ध भाव किया । जननीसे सलाम कर सपूतीका बिरद लिया। ऐसा स्री रामचंद्र सपूतं का सिरमोड़। अरोड़ का रोड़। गौ बिघ्रं का पाळ। अरेसं का काळ। सरणायं -साधार । हाथका उदार, दिलका दरियाव । रजवाटकी नाव। भूपं का भूप साजोतका रूप । काछवाचका सबूत। माहाराज दसरथका सपूत । भरथ लछमण सत्रुघणका बंधु । करुणाका सिंधु । १६३ वचनका हांजी ऐसा माहाराजा रामचंद्र असरण-सरण । अनाथ नाथ बिरदकं धारै। सौ ग्राहक मार न्याय ही गजराजकं तारै । और भी नरसिंघ होय प्रवाड़ा जगजाहर किया। हरणाकुसकं मार प्रहलादकं उबार लिया। प्रळे का दिन जांण संत देस उबारणकं मच्छ देह धारी । १६३. जननी-माता । सलाम-प्रणाम । सपूती-सुपुत्र होनेका भाव । अरोड़-वह जो किसीके बंधन या रोकमें न रह सके । रोड़-रोक, बंधन । प्ररेसं-अरीश, शत्रु । काळ-मृत्यु । सरणायूं-साधार-शरणमें आने वालेकी रक्षा करने वाला । साजोतका रूप-ज्योति स्वरूप । काछवाचका सबूत-जितेन्द्रिय नियतात्मा और सत्य-संध । सिंधु- समुद्र । १६४. प्रसरण-सरण-जिसे कोई शरण न देने वाला हो उसे भी शरण देने-वाला 1 प्रवाड़ा महान् कार्य, चमत्कारपूर्ण कृत्य। हरणाकुस-हिरण्यकशिपु। प्रळ-प्रलय, नाश । मच्छ-मत्स्यावतार । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003420
Book TitleRaghuvarjasa Prakasa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSitaram Lalas
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1960
Total Pages402
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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