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________________ ८८ ब्रह्मचर्य दर्शन जरा-सा चूके, तनिक भी असावधानी हुई कि बस फिर. कहीं के न रहे । फिर तो पतन का गहरा गर्त तैयार है। कोई भी व्यक्ति जब संसार से निकल कर साधु-जीवन में आना चाहता है, तब उससे यही कहा जाता है, कि क्या तुमको ठीक तरह साधु-जीवन के महत्त्व के दर्शन हो गए हैं, क्या तुम साधु जीवन के दायित्व को भली-भांति समझ चुके हो, और उस भार को उठाने के लिए अपने में योग्य क्षमता का अनुभव करते हो ? यदि तैयारी है, तब तो इस राह पर आओ, अन्यथा इसे अंगीकार करने से पहले तुम गृहस्थ-जीवन में सुधरने का प्रयत्न करी । जब साध-जीवन के योग्य बन जाओ, तब इस मार्ग पर आ सकते हो। जीवन के उत्थान की एक राह है और वह है, साधु-जीवन की, जिसे मैंने कठोर राह कहा है । और, दूसरी राह है गृहस्थ-जीवन की। इस दूसरी राह में उतना खतरा नहीं हैं, और न उतना अधिक मन को काबू में रखने की ही बात है। किन्तु गृहस्थ का जीवन, एक ऐसा जीवन भी नहीं है, कि वह अपने स्थान पर जम कर ही खड़ा हो, गति नहीं कर रहा हो, अथवा संसार की ओर ही यात्रा कर रहा हो । गृहस्थ का जीवन भी मोक्ष की ओर ही जा रहा है । इसलिए भगवान महावीर ने दो प्रकार के धर्म बतलाए हैंदुविहे धम्मे-प्रगार-धम्मे य प्रणगार-धम्मे य । -स्थानांग-सूत्र धर्म दो प्रकार का है-गृहस्थ-धर्म और साधु-धर्म। गृहस्थ के कर्तव्य को भी भगवान् ने मोक्ष का ही मार्ग माना है । ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार साधु के कर्तव्य को। इसीलिए भगवान् ने गृहस्थ के जीवन के साथ भी धर्म शब्द का ही प्रयोग किया है । गृहस्थ-जीवन की साधना भी धर्म है। अगर गृहस्थ जीवन में भी मनुष्य के कदम ठीक-ठीक पड़ते हैं, मन ठीक-ठीक विचारता है और सोचता है । मनुष्य संसार में रहता हुआ और संसार के काम करता हुआ भी उनमें अनुचित आसक्ति और वासना नहीं रखता है, अपने मन को इधर-उधर घुमाकर भी अन्ततः उसी शुद्ध केन्द्र की ओर लगाए रहता है, तथा दूसरी तरफ गृहस्थ की जो जिम्मेदारियां आती हैं, उनको भी निभाता चलता है, तो भले ही उस मनुष्य के कदम तेज़ न हों, और भले ही वह ढीले कदमों से चल रहा हो, किन्तु उसका एकएक कदम मोक्ष की ओर ही बढ़ रहा है। राजस्थान के एक अध्यात्म-साधक ने कहा है रे समदृष्टि जीवा, करे कुटुम्ब-प्रतिपाल । अन्तर से न्यारा रहे, ज्यों धाय खिलावे बाल ॥ यह एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण बात है । जवाबदारी लेना, उत्तरदायित्त्व लेना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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