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________________ प्रवचन विवाह और ब्रह्मचर्य जीवन के उत्थान के दो मार्ग हैं । उनमें एक मार्ग ऐसा है, जिसे हम उत्कृष्ट कठोर मार्ग कह सकते हैं । उस मार्ग पर चलने वाले साधक को अपना सर्वस्व समर्पित करना पड़ता है, सब बन्धनों को तोड़ कर चलना पड़ता है । समग्र वासना का सर्वथा त्याग कर देना पड़ता है । चित्त से वासनाओं के भार को हटा कर जीवन को हल्का करने की ही विवेक बुद्धि वहां होती है। साधु को अपना जीवन इसी प्रकार बनाना होता है। यही कारण है कि प्रथम मार्ग के पथिक साधु का जीवन बहुत ही पवित्र और ऊँचा माना जाता है। मगर इस जीवन के सम्बन्ध में एक महत्त्वपूर्ण बात ध्यान में रहनी चाहिए। इस प्रकार के जीवन का विकास अन्दर से होता है । यदि साधक की इस ओर को पर्याप्त तैयारी नहीं है, और अन्तर में वह ऊँचा नहीं उठा है, केवल ऊपर से उस पर त्याग का भार लाद दिया गया है, एवं त्यागी का वेष पहना दिया गया है, तो वह जीवन में बुरी तरह पिछड़ जाएगा, दब जाएगा । उसका जीवन.अन्दर-ही-अन्दर सड़नेगलने लगेगा, और एक दिन वह समाज के जीवन के लिए और स्वयं अपने जीवन के लिए भी अभिशाप बन जाएगा । वह त्यागी जीवन के गुरुतर भार को ढो-ले चलने में सर्वथा असमर्थ हो जाएगा, ठीक उसी प्रकार जैसे न हि वारण-पर्याणं वोढुं शक्तो वनाऽयुजः । -हाथी के पलान को गधा नहीं ढो सकता । साधु जीवन का पथ एक प्रशस्त और पवित्र पथ है। इस मार्ग के समान पवित्र दूसरा कोई पथ नहीं है । साधु को भगवान् का स्वरूप माना गया है। साधु के दर्शन भगवान् के दर्शन माने गए हैं , साचूना दर्शनं पुण्यं, तीर्थ-भूता हि साधवः । -पाष का दर्शन पुण्यमय है; क्योंकि साषु साक्षात् तीर्थ-स्वरूप हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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