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________________ २२ ब्रह्मचर्य-दर्शन हैं, भोग-विलास के फन्दे फैलाए जाते हैं, आपत्तियों और संकटों के पहाड़ भी उनके सामने खड़े किए जाते हैं, किन्तु आप देखते हैं, कि एक क्षणके लिए भी वे अपनी साधना से नहीं डिगे । वे निरन्तर अपने साधनामय जीवन की धारा में ही बहते रहे । उनके अन्दर यह जो अप्रतिहत नैतिक बल आया, वह ब्रह्मचर्य के द्वारा ही आया था । जिसे नैतिक बल प्राप्त नहीं है, वह क्या भरी जवानी में इस प्रकार गृह-त्याग कर सकता है ? अगर क्षणिक उत्तेजना के वश होकर कोई त्याग कर भी देता है, तो आगे चल कर वह कहीं-न-कही गड्ढे में गिर जाता है । वह त्याग-मार्ग पर स्थिर नहीं रह सकता। साधक के मन में संसार को बदलने की जो पावन प्रेरणाएं आती हैं, और जीवन में जो रोशनी चमकने लगती है, वह सिद्धान्त के बल पर ही आती है, चरित्रबल ही से पैदा होती है। आज आपकी क्या स्थिति है ? आप आज बड़ी मुश्किल से रट-रटाकर एक चीज याद करते हैं, और कल उसे भूल जाते हैं । ऐसा मालूम पड़ता है, कि रेगिस्तान में कदम पड़ा है। इधर रेत में पैर का निशान बना, और उधर हवा का तेज झौंका आया नहीं, कि वह निशान मिटा नहीं। पैर उठाने में देर होती है, मगर निशान के मिटने में देर नहीं होती । शास्त्रों का चिन्तन चल रहा है, और हाथ में पोथियाँ हैं, किन्तु समय आने पर कोई भी विचार नहीं मिलता। स्मृतियाँ इतनी धुंधली हो जाती हैं, कि केवल अक्षर बाँचने का काम रह जाता है। इसका प्रधान कारण यही है कि मस्तिष्क में विकारों का तेज प्रवाह बहता रहता है, और वह प्रवाह किसी दूसरे चिन्तन को ठहरने ही नहीं देता। __ इस प्रकार के लोग अपने जीवन में क्या काम करेंगे ? जिनकी स्मृति काम नहीं देती है, और जो जड़ की भांति अपना जीवन गुजार रहे हैं, उनसे संसार को क्या आशा हो सकती है ? ___ इसके विपरीत जिसने ब्रह्मचर्य की साधना की है, और जो विचारों को पवित्र बनाए रख सकता है, उसके मस्तिष्क में यदि एक भी विचार पड़ जाता है, तो वह अमृत बन जाता है । समय आने पर अनायास ही वह स्मरण में भी आ जाता है। किसी भी ग्रन्थ को देखे, तीस-चालीस वर्ष हो जाते हैं, किन्तु उसकी छाया मस्तिष्क में ज्यों-की-त्यों बनी रहती है। यह स्थिति हमें ब्रह्मचर्य के द्वारा ही प्राप्त होती है। मनुष्य का मन जितना पवित्र होगा, उसमें उतने ही सुन्दर विचार आएंगे। किरी तालाब में पानी भरा है। किन्तु यह गन्दा है, उसमें मैल है और कीचड़ है। यदि उस पानी में झाँक कर आप देखेंगे, तो अपना प्रतिबिम्ब नहीं देख सकेंगे । जिस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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