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ज्योतिर्मय-जीवन
८१ गणेशजी-"मैं तो सब समझ लूगा । मैं विद्या का देवता जा हूँ । आपके श्लोकों का अर्थ समझना मेरे लिए क्या बड़ी बात है !"
कहते हैं, आखिर, व्यासजी लिखाने और गणेशजी लिखने बैठ गए । व्यासजी के विचारों का ऐसा प्रवाह बहना शुरू हुआ, कि गणेशजी ने कुछ देर तो समझ-समझ कर लिखा, परन्तु आगे कलम चलाना कठिन हो गया और बिना सोचे-समझे यों ही लिखना शुरू कर दिया । लेखन आरम्भ करते समय आँखों में जो चमक थी, वह फीकी पड़ गई और जो उल्लास था, वह भी ढीला पड़ गया।
व्यासजी ने ताड़ लिया, कि गणेश का मस्तिष्क काम नहीं कर रहा है । अस्तु परीक्षा के लिए उन्होंने कुछ ऐसे श्लोक बोले, कि जिनका अर्थ समझने के लिए कुछ अधिक सोच-विचार करना पड़े। गणेशजी लिखे जा रहे थे । व्यासजी ने बीच में टोक कर कहा--"जरा अर्थ तो करो, क्या लिखा है ?"
गणेशजी झंझला कर बोले-“संभालो अपनी पोथी, तुम्हारे पास विचार नहीं रहे हैं, तभी तो मुझे बीच में रोकते हो।"
सासजी ने जरा मुस्करा कर कहा-“सो तो ठीक, किन्तु अर्थ तो बताओ, क्या लिखा है ?"
आखिर गणेशजी ने अपनी पराजय स्वीकार करते हुए कहा कि-"अब से तुम्हारी-हमारी शर्त खत्म हो गई । अब तुम भी शान्त मन से बोलो और मैं भी शान्त मन से लिखूगा।"
___अभिप्राय यह है, कि मनुष्य का अपना जो चिन्तन है और मनुष्य के अपने मन में जो विचार धाराए आ रही हैं, उनके पीछे साधना होती है । जहाँ नैतिक बल होता है वहीं पर मनोबल होता है । ऐसा मनुष्य जहाँ-कहीं भी अपने सिद्धान्त के लिए तन कर खड़ा हो जाता है । इधर-उधर की दुनियाँ के, कितने ही धक्के क्यों न लगें, वह मैदान से नहीं हटता है । वह अपने जीवन की सन्ध्या के अन्तिम काल में भी मध्याह्न के सूर्य की भाँति चमकता और दमकता रहता है । अपने जीवन की उज्ज्वल-रश्मियों से विश्व को उद्भासित करता रहता है। वह एक ऐसा आलोक-पुज है, जो समय से पहले कभी नहीं बुझता । दुनियाँ की कोई भी हवा तूफान और आंधी उस पर असर नहीं कर सकती।
भगवान् महावीर के जीवन को ही देखो न ! केवल-ज्ञान तो उन्हें बाद में हुआ था, किन्तु पहले अपने चरित्र-बल से ही उन्होंने साढ़े बारह वर्ष तक कठिन साधना की थी। वह भी उस जवानी में, जो प्रायः संसार की गलियों में भटकती है । वे सुखद सोने के महलों को, प्रिय परिवार को और भोगोपभोग की विपुल सामग्री को ठुकरा कर अध्यात्म-साधना के लिए चल देते हैं । स्वर्ग की देवांगनाएं डिगाने के लिये आती
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