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ब्रह्मचर्य-दर्शन चौरानवे वर्ष की ढलती-गिरती उम्र में भी उनकी क़लम सुन्दर विचार देती रही। इतना ही नहीं, जब वे गलत परम्पराओं की आलोचना करते, तब प्रतिक्रियावादी तलवार से उतने नहीं डरते थे, जितने कि उनकी कलम से डरते । यह ब्रह्मचर्य का ही अपार बल था । नैतिक बल ने उनके मस्तिष्क को इतना प्रवाह-शील बना दिया था, कि अन्त तक उनके जीवन में चिन्तन की स्वच्छ-साथ ही वेगवती धारा बहती रही।
कुछ मनुष्य ऐसे होते हैं,जिनका प्रारम्भिक जीवन तो चिन्तन और विचारों से भरा-पूरा रहता है, मगर जीवन के कुछ वर्ष बाद ही वह सूखे हो जाते हैं। उनकी दशा ऐसी हो जाती है, कि अपने कारोबार चलाने के लिए और धर्म के काम को आगे बढ़ाने के लिए भी उनमें सूझ-बूझ नहीं रहती। उनकी बुद्धि ठस हो जाती है । इसका कारण क्या है ? अन्दर में बुद्धि का जो झरना बह रहा था, वह क्यों सूख गया ? आप गहराई से सोचेंगे-समझेंगे, तो मालूम होगा कि अपवित्र और गंदे विचारों ने ही पवित्र बुद्धि के झरने को सोख लिया है । दूषित विचारों का प्रभाव बुरा होता है।
भारतीय साहित्य में व्यास के सम्बन्ध में एक किंवदन्ती प्रचलित है । महर्षि व्यास जब महाभारत रचने की तैयारी करने लगे, तब लिखने वाला कोई नहीं मिला। लेखकों ने कहा, कि आपकी वाणी के प्रवाह को हम भला कैसे वहन कर सकेंगे ? आखिर लेखक की शोध में सब ओर घूमने के बाद व्यास गणेश जी के पास पहुंचे और उनसे बोले-"तुम्हीं लिख दो न, हमारा यह महाभारत ।" गणेशजी ने उत्तर में कहा-"मैं लिख तो दूंगा, लेकिन तुम बूढ़े बहुत हो गए हो। तुम्हारे अन्दर अब क्या रक्खा है, जो मैं लिखूगा ? बुढ़ापे में लिखाने की बात कह रहे हो, किन्तु तुम्हारी बुद्धि का झरना तो अब सूख चुका है । अब तो जो भी थोड़ा-बहुत लिखाना चाहते हो, उसे तो जिसे कह दोगे, वही लिख देगा। यदि मुझसे ही लिखाना है, तो मेरी एक शर्त है । यदि एक शब्द बोलोगे और एक घन्टे सोचोगे, तो हमारी-तुम्हारी नहीं पटेगी । मैं तो निरन्तर लिखू गा, और जहाँ एक बार भी आपका बोलना बन्द हुआ, कि वहाँ मेरा लिखना भी बिलकुल बन्द हो जाएगा । मैं आपकी व्यर्थ की सोचा-साची में अपना अमूल्य समय नष्ट नहीं कर सकता।"
व्यास बोले-"भले ही मैं बुड्ढा हो गया हूँ, फिर भी मैं बिना रुके हुए तुम्हें लिखाता जाऊँगा।"
गणेशजी ने बात पक्की करने के लिए फिर कहा-“यदि एक बार भी कहीं रुक गए, तो फिर मैं स्पष्ट कहता हूँ, एक अक्षर भी आगे नहीं लिखूगा।"
व्यास- "तुम्हारी शर्त मुझे स्वीकार है। किन्तु मेरी भी एक शर्त है, कि मैं जो कुछ भी लिखाऊ, तुम भी उसका अर्थ समझ कर लिखना। यों ही सूने दिमाग़ से न लिखते जाना।"
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