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ब्रह्मचर्य-दर्शन
पीछे-पीछे दौड़ रहा है, उसकी जिन्दगी भटकने के लिए ही है । इधर-उधर से जो भी हवाएं आएंगी, उसे भटकाएँगी । बस, साधक की जिन्दगी भटकने में ही रह जाएगी और साधना का अभीष्ट लक्ष्य प्राप्त नहीं कर सकेगी।
साधना का मूल रूप फैलने में नहीं है, किन्तु जड़ के मजबूत बनने में है । जैसे जड़ की मजबूती न होने के कारण काई का टुकड़ा स्थिर नहीं रहता, उसी प्रकार साधना कितनी ही क्यों न फैल जाए, जड़ की मजबूती के अभाव में उसमें गहराई नहीं आ सकती और इसी कारण उसमें स्थिरता भी नहीं आ सकती।
जैसे हाथी अंकुश के द्वारा बस में कर लिया जाता है, वैसे ही राजीमती की वाणी ने भी अंकुश का काम किया, और जो साधक भटक रहा था, वह फिर अपनी अध्यात्म साधना में निलीन हो गया। फिर दोनों ने अपनी साधना को उस चरम सीमा पर पहुंचाया, कि अन्त में परमात्म-तत्व में लीन हो गए।
इतिहास की इस महत्त्वपूर्ण घटना में एक साधक का जीवन भूल की राह पर जा रहा था, दुर्भाग्य से यदि दूसरा जीवन भी वही भूल कर बैठता, तो फिर दोनों की आत्मा को संसार में भटकना पड़ता और दोनों का जीवन ऐसे अन्धकार में विलीन हो जाता कि, शायद जन्म-जन्मान्तर में भी प्रकाश की किरण न मिल पाती।
इसी प्रकार सीता का जीवन ग्यारह लाख वर्षों के बाद भी आज हमारे सामने प्रकाश-स्तम्भ बना हुआ है, हमारा पथ-प्रदर्शन कर रहा है। आज भी कोटि-कोटि नरनारी सीता की पूजा करते हैं । क्या इस कारण, कि वह राजा की बेटी थी ? नहीं ! तो क्या इसलिए, कि वह राजा की पत्नी थी? इसलिए भी नहीं। संसार में असंख्य राजकुमारियां और रानियां आई और चली गई। आज कौन उन सब के नाम जानता है ? इतिहास के पृष्ठों पर उनका नाम नहीं चढ़ा है। किन्तु सीता के नाम का उल्लेख हमारे शास्त्रों ने गौरव के साथ किया है। स्वयं इतिहास ने भी उस पवित्र नाम को अपने पृष्ठों में स्थान देकर महत्त्व प्राप्त किया है। इतना ही नहीं, वह पवित्र नाम भारत के जन-जन के मन पर आज भी अंकित है।
सीता के सामने एक ओर दुनिया भर के प्रलोभन खड़े थे, और दूसरी ओर रावण जैसा शक्तिशाली दैत्य मौत की तलवार लेकर खड़ा था। मगर न प्रलोभन ही और न तलवार ही, उसके मन को डिगा सकी। वह अपनी साधना के पथ से अणुमात्र भी विचलित नहीं हुई।
हम सोचते हैं कि संसार में मनुष्य कहीं भी हो, सुख में हो अथवा दुःख में हो, एकान्त में हो या हजारों के बीच में हो, अगर कोई मनुष्य की रक्षा कर सकता है, तो वह है उसका अन्तरंग चरित्र-बल ही। बस, आन्तरिक चरित्र-बल ही जीवन को दृढ़ अविचल और पवित्र बनाए रखता है। इस रूप में मनुष्य की जो मानसिक निर्मल
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