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ज्योतिर्मय जीवन
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में गुफा में प्रवेश किया, उसका त्याग अन्धकार में बिखरने लगा। साधना के श्रेष्टतम पथ पर चलने वाला वह साधक भटक गया और राजीमती से कहने लगा-"आओ राजीमती, अभी क्या जल्दी है ? नव यौवन के मादक क्षणों में हम तुम संसार के भोग भोग लें और जब उम्र ढलने लगेगी, तब फिर साधना-पथ के पथिक बन जाएँगे।"
भुत्त-भोगी तो पच्छा जिण-मग्गं चरिस्समो।
--उत्तराध्ययन २२ मगर, उस समय राजीमती ने जो कुछ भी रथनेमि से कहा-उसे हम आज भी याद करते हैं । जैन काल-गणना के अनुसार छयासी हजार वर्षों के बाद, आज भी वह वाणी हमारे हृदय के कण-कण में गूंज रही है । भगवान् महावीर का जीवन-सूर्य जब विदा होने की अन्तिम घड़ियों में गुजर रहा था, और विचार-सम्पन्ति के रूप में, वे अपने जीवन की अन्तिम भेंट संसार को समर्पित कर रहे थे, तब उन्होंने राजीमती और रथनेमि का यह पावन चरित्र, साधक-जगत् के समक्ष प्रस्तुत किया था।
रथनेमि के प्रस्ताव का भगवती राजीमती ने उत्तर दिया-“साधक, यह क्या कहते हो? क्या करने की सोचते हो? जरा होश में आओ-जरा सोचो, समझो और विचार करो । नहीं, तो तुम्हारे जीवन की वही दशा होगी- जो पवन से प्रताड़ित इधर-उधर दौड़ती हुई हड (पानी पर फैलने वाली काई जैसी कोई जलीय वनस्पति) की होती है,
वायाविरोव्व हडे अट्ठि-अप्पा भविस्ससि संसार में मनुष्य को जो भी अच्छी चीज मिलती है, बस, वह उसे पकड़ने के लिए दौड़ पड़ता है । यह दुनियां भोग-विलास के साधनों से भरी हुई है। यहाँ एक-सेएक बढ़कर वस्तुएँ मनुष्य के मन को ललचाने के लिए मौजूद हैं। भोग-विलास की दृष्टि से संसार खाली नहीं है। ऐसी स्थिति में जो भी सुन्दर और आकर्षक वस्तु मिली, उसी पर ललचा गया और उसी को भोगने की कोशिश करने लगा, तो कहां ठिकाना है ? फिर तो एक पागल कुत्ते की जिन्दगी की तरह उसकी जिन्दगी बर्बाद ही होने को है।
जब तालाब में एक काई का टुकड़ा आ जाता है, तब उसकी क्या दशा होती है ? पूर्व की हवा चलती है, तो वह टुकड़ा पश्चिम की ओर भागता है और पश्चिम की हवा का झोंका लगता है, तो पूर्व की ओर भागता है । वह टुकड़ा अपनी जगह पर स्थिर नहीं रह सकता । वह तो दिन-रात भटकने के लिए ही है।
इसी प्रकार जिस साधक का मन भटका हुआ है, चंचल है और भोगों के
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