SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ब्रह्मचर्य-दर्शन यह अपनी ठीक दशा में है । पाड़ा खरीदने वाला यह स्वयं नहीं-इसका नशा था, जो आज उतर चुका है।" अब ज़रा आप इस कहानी के अन्तस्तल पर विचार कीजिए। एक मनुष्य है, उसे धन, वैभव, स्त्री, पुत्र आदि मिले हैं । उनमें वह ऐसा फंस जाता है, कि सारी ज़िन्दगी वासनाओं के पीछे पड़ कर बर्बाद कर लेता है । साधारण जन कहते हैं, कि "वह ऐसा करता है, वैसा करता है।" किन्तु ज्ञानी कहते हैं-"वह क्या करता है ? उसमें रहा हुआ वासना का भूत उस से यह सब कुछ करा रहा है !" इस मन को अगर पवित्र बना लिया जाए तो यह सब चीजें नहीं हो सकतीं। साधारण मानव-जीवन में कुछ-न-कुछ न्यूनाधिक वासनाएँ तो बनी ही रहती हैं । किन्तु ज्ञानी उनके प्रति घृणा न करके यही सोचते हैं, कि आत्मा तो स्वभाव से निर्मल है, किन्तु इसके अन्दर शैतान पैठ गया है और विचारों की अपवित्रता की दुर्गन्ध फैल गई है। उस शैतान को जब तक बाहर निकाल न दिया जाए, और उस दुर्गन्ध को जब तक साफ़ न कर दिया जाए, तब तक उस पर बाह्य नियंत्रण रखने मात्र से कुछ नहीं होगा। साधना के क्षेत्र में बाह्य दमन ही सब कुछ नहीं है, दमन के साथ अन्दर में शमन की भी अपेक्षा है। इस प्रकार जैनधर्म की साधना, जीवन के अन्तरंग की साधना है । वह जीवन को अन्दर से स्वच्छ करने की बात पर अधिक जोर देता है । जिस पात्र के भीतर बदबू भरी है, उसे बाहर से धो भी लिया जाए, तो क्या प्रयोजन सिद्ध होगा? उसकी बदबू जाएगी नहीं। इस प्रकार जीवन के अन्तरंग में जो विकार छिपे हैं, जो वासनाएँ घुसी हैं, उन्हें दूर किए बिना जीवन की वास्तविक शुद्धि नहीं हो सकती । अतएव जैन-साधना हमें अन्तस्तल का शोधन करने की प्रेरणा देती है। सचाई यह है, कि ऐसा किए बिना काम भी नहीं चल सकता। इतिहास साक्षी है, कि जिन आत्माओं ने जीवन में ब्रह्मचर्य के महत्त्व को समझा, वे उन्नति के उच्चतम शिखर पर जाकर खड़े हुए, संसार में वे अजर-अमर हो गए। उनमें हमारी बहिनें हैं, और भाई भी हैं। ब्रह्मचर्य का तेज जिनके जीवन के अन्तर में पैदा हो गया, वे चाहे अकेले रहे, चाहे हजारों में रहे, मगर वे अपने जीवन के प्रति सदा जागरूक रहे हैं। हम देखते हैं, कि राजकुमार रथनेमि, अपने छोटे भाई भगवान् अरिष्टनेमि के साथ संसार को छोड़ कर दीक्षा ले लेता है । रैवताचल-गिरिनार पर्वत की अन्धकार से भरी हुई गुफ़ामें जाकर ध्यान लगा देता है। उसके मन से मृत्युका भय निकल चुका है। पास ही में होने वाला सिंहों का भीषण गर्जन भी भय का संचार नहीं कर पाता है । लेकिन, इतना होने पर भी वह राजीमती का राग न त्याग सका । ज्यों ही राजीमती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy