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________________ ज्योतिर्मय जीवन ७५ अभिप्राय यह है, कि सांसारिक इज्जत और प्रतिष्ठा कितनी ही क्यों न प्राप्त कर लो धन कितना ही क्यों न बढ़ा लो, किन्तु अगर नैतिक बल प्राप्त नहीं होता है, तो आत्मिक शक्ति भी नहीं प्राप्त हो सकती । बुद्धि चाहे कितनी ही विकसित क्यों न हो जाए, यदि विचारों में पवित्रता नहीं आती है, तो संसार में सुख और शान्ति की आशा नहीं की जा सकती । हमारे लिए सब से बड़ा भूत हमारे बुरे विचारों का ही है। जब तक उससे पिंड न छूट जाए, शान्ति नहीं मिलेगी । कुत्सित विचारों का भयंकर विष जब तक हमारे दिल और दिमाग में भरा रहेगा, तब तक अहिंसा, सत्य तथा ब्रह्मचर्य की निर्मल साधनाएँ जीवन में नहीं पनप सकेंगी । एक राजा हाथा पर चढ़ कर जा रहा था। हजारों आदमी उसके साथ थे । जुलूस निकल रहा था। उधर एक शराबी लड़खड़ाता हुआ, राजा की सवारी के सामने आया । उसकी निगाह हाथी पर पड़ी, तो उसने राजा से कहा - "यह भैंस का पाड़ा कितने में बेचता है ?" राजा ने सुना तो पास बैठे अपने मंत्री से कहा - "यह क्या बक रहा है ? मेरे हाथी को भैंस का पाड़ा कहता है । और मोल पूछ कर मेरा अपमान कर रहा है ।" राजा को आवेश में देखकर मन्त्री ने कहा- "महाराज, यह नहीं कह रहा है, कोई और ही कह रहा है । आप इस पर नाराज क्यों होते हैं ?" राजा ने तमक कर कहा - "तुम क्या नहीं सुन रहे हो ? यही तो कह रहा है । और कौन है, कहने वाला यहाँ पर ?" मन्त्री ने तुरन्त ही उस शराबी को पकड़वा कर कारागार में डाल दिया । दूसरे दिन जब वह व्यक्ति राज दरबार में महाराज के सम्मुख लाया गया, तब शराब का नशा उतर चुका था और वह अपनी ठीक दशा में था । महाराज ने उससे पूछा - " पाड़ा कितने में खरीदोगे ?" वह बोला - " अन्नदाता, जीवन की भीख मिले तो निवेदन करूँ । आप मेरे प्रभु हैं, मैं आप का दास हूँ ।" राजा ने कहा - " जो कहना है, जरूर कहो । " उसने कहा- "महाराज, पाड़ा खरीदने वाला सौदागर तो चला गया। मैं क्षमाप्रार्थी हूँ । आप मुझे क्षमा करें।" मन्त्री ने शराबी की इस बात का स्पष्टीकरण करते हुए कहा- "अन्नदाता, अगर यह स्वयं खरीदने वाला होता, तो कल की तरह आज भी खरीदता, मगर आज Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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