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________________ ७४ ब्रह्मचर्य-दर्शन 'तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु । भगवान के चरणों में प्रार्थना की गई है—प्रभो, मुझे और कोई चाह नहीं है। मुझे धन की, परिवार की, संसार में प्रतिष्ठा की और इज्जत की कामना नहीं है । यह सब चीजें तो एक किनारे से आती हैं और दूसरे किनारे चली जाती हैं । अतएव वे प्राप्त हों तो क्या, और न प्राप्त हों, तो भी क्या ? मेरी तो एक मात्र अभिलाषा यही है, कि मेरा मन पवित्र बने, मेरे विचारों में निर्मलता हो, मेरे संकल्प सदा पवित्र बने रहें। धन आया, वैभव मिला, परन्तु यदि विचार पवित्र न हुए, तो वही धन नरक की ओर घसीट कर ले जाएगा। सम्पत्ति प्राप्त हुई, इतनी कि सोने की नगरी बस गई, किन्तु उसके साथ यदि मन में पवित्रता न आई, तो वह सम्पत्ति इकट्ठी होकर क्या करेगी ? वह तो जीवन को और भी अधिक बर्बाद करने वाली साबित होगी। ___ भारत के इतिहास में दो सोने की नगरियों का वर्णन आया है-लंका और द्वारिका का । समूचे भारत के इतिहास की पृष्ठभूमि पर केवल इन दो ही सोने की नगरियों का उल्लेख मिलता है, और दोनों का आखिरी परिणाम भी संसार के सामने है । सोने की लंका का अन्त में क्या हुआ ? सभी जानते हैं, वह राख का ढेर बन गई । उसका समस्त वैभव मिट्टी में मिल गया। लाखों वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी, आज तक जो अपमान और धृणा का भाव राक्षस जाति और रावण के नाम पर बरस रहा है, उसकी दूसरी मिसाल मिलना कठिन है। आज तक भी उसे इज्जत और प्रतिष्ठा नहीं मिल पाई है। दूसरी सोने की नगरी द्वारिका थी । कहते हैं, बड़ी शानदार और विशाल थी। वह बारह योजन की लम्बी और नो योजन की चौड़ी थी। उसमें बड़े-बड़े सम्पत्तिशाली धनकुबेर और बड़े-बड़े वीर योद्धा निवास करते थे। सब कुछ था, पर उसका भी अन्तिम परिणाम क्या हुआ ? अन्त में तो वह भी राख के ढेर के रूप में ही परिवर्तित हो गई। संसार का असाधारण वैभव पाकर भी राक्षस जाति और यादव जाति क्यों बर्बाद हो गई ? दोनों सोने की नगरियाँ थीं, और दोनों के स्वामी सोचते थे, कि हम जितने ही भारी और ऊंचे सोने के सिंहासन पर बैठेंगे, संसार में उतनी ही अधिक हमारी इज्जत होगी। पर, उस सोने की चमक में वे अपने आपको भूल गए । सम्पत्ति के मद में वे जीवन को बनाने की कला को भूल गए । एक ओर रावण का विशाल साम्राज्य इसी भूल का शिकार हो कर नष्ट-भ्रष्ट हो गया, तो दूसरी ओर यादवों के असंयममय जीवन ने द्वारिका को आग में झौंक दिया। एक को पर-स्त्री-लम्पटता ले इबी और दूसरी को शराब के नशे ने नष्ट कर दिया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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