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ब्रह्मचर्य-दर्शन
दौड़ लगाना बुरा नहीं है, पर, कहीं रुकने की जगह भी तो बना लो । क्या बिना कहीं रुके दौड़ते ही चले जाओगे ? पूरी की पूरी जिन्दगी इधर-उधर की दौड़ में ही गरक कर देना चाहते हो ?
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वास्तव में, ब्रह्मचर्यं मनुष्य जीवन के लिए एक महत्त्वपूर्ण वस्तु है, वह जीवन की सुन्दर खुराक है । यदि उसका यथोचित उपयोग न किया गया, तो जीवन भोगों में यूल जाएगा । आजकल जहाँ-तहाँ रोगग्रस्त शरीर दिखलाई देते हैं और घर-घर में बीमारों के बिस्तर लग रहे हैं, उसका एक प्रधान कारण शरीर का मजबूत न होना है - और शरीर के मजबूत न होने का कारण ब्रह्मचर्य का परिपालन न करना ही है । भारत के इतिहास में ब्रह्मचर्य के जो उज्ज्वल और शानदार उदाहरण आए हैं, वे आज दिखलाई नहीं दे रहे हैं ।
कहाँ है, आज भारतीय तरुणों के चेहरे पर वह चमक ? कहाँ गई वह भाल पर उद्भासित होने वाली आभा ? कहाँ चली गई, ललाट की वह ओजस्विता ? सभी कुछ तो वासना की आग में जल कर राख बन गया। आज नैसर्गिक सौन्दर्य के स्थान पर पाउडर और लैवेंडर आदि कृत्रिम साधनों द्वारा सुन्दरता पैदा करने का प्रयत्न किया जाता है। पर, क्या कभी मुर्दे उसकी शोभा बढ़ाने में समर्थ हो सकता है ?
का श्रृंगार
ऊपर की लीपा-पोती से पैदा की हुई सुन्दरता, जीवन की सुन्दरता नहीं है । ऐसी कृत्रिम सुन्दरता का प्रदर्शन करके आप दूसरों को भ्रम में नहीं डाल सकते । हाँ, यह हो सकता है, कि आप स्वयं ही भ्रम में पड़ जाएँ। कुछ भी हो, यह निश्चित है, कि उससे कुछ बनने वाला नहीं है । न आपका कुछ बनेगा, और न दूसरों का ही ।
कल्पना करो, कि एक वृक्ष सूख रहा है । इस स्थिति में यदि कोई भी रंगरेज या चित्रकार उसमें वसन्त लाना चाहे, तो वह सुन्दर रंग पोत कर उस में वसन्त नहीं ला सकेगा । उसके निष्प्राण सूखे पत्तों पर रंग पोत देने से वसन्त नहीं आने का । वसन्त तो तब आएगा, जब वृक्ष के अन्दर की प्राणशक्ति में हरियाली होगी । उस समय एक भी पते पर रंग लगाने की आवश्यकता नहीं होगी । वह हरा-भरा वृक्ष अपने आप ही अपनी सजीवता के लक्षण प्रकट कर देगा ।
इसी प्रकार रंग पोत लेने से जीवन में वसन्त का आगमन नहीं हो सकता । बसन्त तो जीवन-सत्ता के मूलाधार से प्रस्फुटित होता है । जीवन-शाक्ति में से ही वसन्त फूटता है :
जीवन में असला रंग ब्रह्मचर्य का है, किन्तु वह नष्ट हो रहा है और देश के हजारों नौजवान, जवानी का दिखावा करने के लिए अपने चेहरे पर रंग पोतने लगे
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