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जीवन-रस
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ऐसी राह पर चलो, कि जिससे शरीर इतना शक्तिशाली बन जाए, कि किया जा सके । दुनियां भर के कष्ट आ पड़ने और साथ ही आत्मा भी इतनी बलवान् रहे,
समय पर दुःखों और कष्टों को सहन पर भी शरीर कार्य-क्षम बना रह सके, कि वह वासनाओं के कांटों में न उलझे, भोग में न गले ।
आशय यह है, कि यदि शरीर का केन्द्र मजबूत रहेगा, तो आत्मा भी अपनी साधना में दृढ़ता के साथ तत्पर रह सकेगी। अतएव शरीर को मार कर आत्मा के कल्याण की बात न सोचो और न आत्मा को मार कर शरीर को ही भोगासक्त सुकुमार बनाओ ।
यहाँ पर मुझे बुद्ध के जीवन की एक बात याद आ जाती है । बुद्ध साधना - काल में अपनी शारीरिक शक्ति से अधिक कठोर तपश्चरण में लगे रहे। शरीर क्षीण हो गया, इन्द्रियों क्षीण हो गईं, यहाँ तक कि स्मृति-चेतना भी विलुप्त होने लगी । कहा जाता है, इसी बीच वीणा बजाती हुई कुछ नर्तकी बालाएँ पास से गुजरीं । वीणावादन की कला के सम्बन्ध में, मुख्य नर्तकी ने दूसरी बाला से कहा कि "वीणा के तारों को न अधिक कसो और अधिक ढीला रखो । वीणा वादन के लिए तारों को मध्य की, बीच की स्थिति में रखना आवश्यक है ।" इस पर बुद्ध के चिन्तन ने नया मोड़ लिया, कि साधना क्षेत्र में, मानव जीवन के लिए भी कुछ मर्यादा हैं और वह मर्यादा न अत्यन्त भोग की है और न अत्यन्त त्याग की है । वीणा तारों का वाद्य है, उसके तारों में ही स्वर
कृत होता है । अस्तु, वीणा के तारों को यदि बिल्कुल ही तान दिया जाए और इतना कस दिया जाए, कि उनमें जरा-सी भी लचक न रहे, तो वीणा बज नहीं सकती । लचक नहीं रही है, तो वह बज भी नहीं सकती है । यदि उसके तारों को एक-दम ढीला छोड़ दिया जाए, तो भी वीणा बज नहीं सकती। उसमें से कोई भी स्वर नहीं निकलेगा । अगर वीणा को ठीक तरह बजाना है, तो तारों को कसना भी पड़ेगा और कसने के साथ उनमें लचक भी छोड़नी पड़ेगी । इस मध्य स्थिति में जब तारों को छोड़ा जाता है, तब वीणा बजती है, उसमें से रागिनी कृति होती है ।
जीवन का यही आदर्श है, कि साधना के द्वारा अपने मन के, इन्द्रियों के और शरीर के तारों को जब कसा जाए तब इतना ही कसा जाए, कि उनमें लचक बाकी रह जाए । लचक बनी रहेगी, तो जीवन के तार बेज सकेंगे, और धर्म की रागिनी उस में से पैदा हो सकेगी।
अगर जीवन को सर्वथा खुला छोड़ दिया गया, इन्द्रियों और मन को एक दम ढीला कर दिया गया, तब भी जीवन के कर्तव्य की रागिनी ठीक तरह नहीं बजेगी । रावण इन्हें खुला छोड़ दिया था, तो वह सोलह हजार रानियाँ होने पर भी सीता को चुराने गया, और कहीं का न रहा ।
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