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ब्रह्मचर्य-दर्शन संकल्प प्रारम्भ में ही जाग उठता है, तो जीवन की सुन्दर और हरी-भरी खेती उसमें लहलहाने लगती है। यदि दुर्भाग्य से ऐसा न हुआ, तो क्षय की बीमारी आ पेरती है । क्षय के भयंकर रोग से मनुष्य के जीवन की मूल शक्ति नष्ट हो जाती है।
एक नौजवान मुझे मिले । देखने में ठीक थे, किन्तु, हताश और निराश ! उन्होंने कहा- मेरी हड्डियां इतनी कमजोर हैं, कि प्रति दिन खिरती रहती हैं ! उस नौजवान के इन शब्दों को ध्यान में रख कर मैंने सोचा-यह इसके माता-पिता की भूल है। वे अपने जीवन को नियंत्रण में नहीं रख सके और उसका कुपरिणाम इस प्रकार उन की सन्तति को भोगना पड़ रहा है ।।
जब मैं शिमला गया, तो रास्ते में एक गाँव मिला- 'धर्मपुरा।' वहाँ क्षय रोग का एक अस्पताल है। उसमें इधर के ही एक भाई बीमार पड़े थे । खबर मिली, कि वे दर्शन करना चाहते हैं । हम वहाँ गए, तो देखा कि सैकड़ों-ही आदमी वहाँ मौजूद हैं। विविध प्रकार की टी० बी० के शिकार ! मालूम हुआ, कि कोई-कोई तो चार-चार पांच-पांच वर्ष से वहाँ पड़े हैं। इस प्रकार उधर घर बर्बाद हो रहा है, और इधर वे मौत की घड़ियाँ गिन रहे हैं।
एक भाई ने बतलाया-यहां तो मैं ठीक हो जाता हूँ, किन्तु घर पहुंच कर फिर बीमार हो जाता हूँ । बस, यहाँ और वहाँ भटकने में ही मेरी जिन्दगी कट रही है ।
बात यह है, कि अस्पताल में रहकर शरीर कुछ ठीक बना, तो घर गए । वहाँ जीवन में संयम नहीं रहा, बुरी आदतों के शिकार हो गए । बस, अस्पताल में तैयारी हुई थी, वह घर में बर्बाद हो गई, शरीर फिर गलने लगा और फिर धर्मपुरा पहुंचे।
मैंने सोचा-यह हमारे देश के नौजवान हैं । इनकी उठती हुई जिन्दगियाँ, क्या धर्मपुरा और घर की ही दौड़ लगाने को हैं ? इसी दौड़ में इनका जीवन समाप्त होने को है?
इसीलिए जैन-धर्म ने और दूसरे धर्मों ने भी बड़ी ही महत्त्वपूर्ण बात कही है, कि इस शरीर को यों ही कोई साधारण चीज मत समझो। इस शरीर को न तो भोग की आग में झोंको और न विवेकशून्य अन्ध-तपस्या की ही आग में झुलसाओ। जो तपस्या शास्त्र और शक्ति की सीमा से बढ़कर है, और जो केवल शरीर को मारने के ही उद्देश्य से की जाती है, शरीर को बर्बाद करना ही जिसका प्रयोजन है, वह तपस्या अन्ध-तपस्या है। जो अति का मार्ग है, वह धर्म का मार्ग नहीं है । अति-भोग भी शरीर को गला देता है और मर्यादाहीन अति-तप भी शरीर को नष्ट कर देता है। अतएव शरीर को गला देने वाली कोई भी अति प्रवृत्ति या अति निवृत्ति लक्ष्य की पूर्ति नहीं कर पाती। अपनी शक्ति को लक्ष्य में रख कर सर्वत्र सीमा निर्धारित करने की आवश्यकता है।
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