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जीवन-रस
है। शरीर विषय वासनाओं के लिए नहीं है, शृ गार के लिए नहीं हैं । अपने और दूसरे के चित्त में वासना की आग जलाने के लिए नहीं है। हम संसार में मनुष्य के रूप में आए हैं, तो कुछ महत्त्वपूर्ण काम करने के लिए आए है । उस काम में हमारा यह शरीर महत्वपूर्ण योग दे सकता है । इस प्रकार शरीर बर्बाद करने के लिए नहीं, अपितु काम करने के लिए, साधना करने के लिए और स्व-पर-कल्याण करने के लिए है।
इस प्रकार यदि हम सावधान होकर, गहरी और पैनी नजर से देखें तो मालूम होगा, कि शरीर अपने आप में गलत नहीं है । गलत हैं, उसका दुरुपयोग करने वाले । जब उपयोग करने वाले गलत होते हैं, तब शरीर भी गलत काम करता है, इन्द्रियां भी गलत राह पर दौड़ती हैं और मन भी गलत रास्ते पर चल पड़ता है। किन्तु साधक जब विवेक-शील होता है तब वह अपने शरीर, इन्द्रिय और मन को और अपने सभी साधनों को ठीक तरह, से काम में लगाता है, उन्हें आत्म-कल्याण में सहायक बना लेता है । एक अध्यात्म-योगी सन्त ने कहा है
येनैव देहेन विवेक-हीनाः, संसार-बीजं परिपोषयन्ति । तेनेव बेहेन विवेक-भाजः, संसार-बीजं परिशोषयन्ति ॥
-अध्यात्म-तत्वालोक विवेक-शून्य व्यक्ति जिस शरीर के द्वारा जन्म-मरण के बीज को पोषता है, और संसार के विष-वृक्ष को पल्लवित करता है, उसी शरीर के द्वारा ज्ञानी, विवेकशील और विचारवान् साधक जन्ममरण के बीज को सुखा देता है, और संसार के विष-वृक्ष को नष्ट कर देता है । उसे दग्ध कर डालता है ।
भमवान् महावीर की विराट् साधना का साधन यह शरीर ही रहा है, भगवान् पार्श्वनाथ और मर्यादापुरुषोत्तम राम भी इसी मानव-शरीर को धारण करके ही संसार में चमके । किन्तु इस शरीर में रहते हुए रावण-जैसों ने नरक की राह भी पकड़ी। इसमें दोष शरीर का नहीं, उपयोग करने वाले का है। किसी भी वस्तु का अच्छा और बुरा, दोनों उपयोग हो सकते हैं।
इस रूप में जैन-धर्म की साधना का केन्द्र शरीर और आत्मा दोनों हैं । जैनधर्म यह नहीं कहता, कि आत्मा की पूजा की धुन में शरीर को ही नष्ट कर दो, अथवा शरीर की पूजा के लिए आत्मा को ही भुला दिया जाए। दोनों ओर जब अति होती है, तब साधक अपने पथ से भ्रष्ट हो जाता है। वह स्वयं गलत राह पर चल पड़ता है, और दूसरों को भी वही ग़लत राह दिखलाता है। वह स्वयं गिरता है और दूसरों को भी गिराता है।
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