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________________ ब्रह्मचर्य-दर्शन पात्र को आग पर रख दिया जाता है और मन्द आँच से उसे तपाया जाता है । पात्र को तपाने का प्रयोजन घी को शुद्ध करना है, पात्र को नष्ट करना नहीं है, और धी को भी नष्ट कर देना नहीं है । पात्र को गरमी पहुंचाई जाती है, किन्तु इतनी मात्रा में ही, कि घी पिघल जाए तथा छाछ और घी अलग-अलग हो जाएं। जो बात इस उदाहरण से समझ में आती है, वही बात जैन-धर्म शरीर को तपाने के विषय में कहता है। जैन-धर्म में काय-क्लेश को तप माना गया है, परन्तु उस का उद्देश्य और आशय यही है कि शरीर को घी के पात्र की तरह तपाना है । इस शरीर से तपश्चर्या करनी है और साधना करनी है, और इसी में शरीर की सार्थकता भी है। किन्तु इसका आशय शरीर को झुलसा देना नहीं है और न ही आत्मा को उत्पीड़ित करना है । आत्मा में जो विकार आ गए हैं, वासनाएं आ गई हैं, शरीर को तपा कर उन्हें दूर करना है । पर ऐसा नहीं है, कि घी को शुद्ध करने के लिए पात्र को ही जलाकर नष्ट कर दिया जाए। इस प्रकार जैनधर्म की कुछ मर्यादाएं हैं, किन्तु दुर्भाग्य से आज हम उन मर्यादाओं को समझने का प्रयत्न नहीं करते । हम उस गम्भीर चिन्तन को भूल गए हैं। दूसरे लोगों की तरह हम भी शरीर पर बिगड़ बैठते हैं और समझ लेते हैं, कि शरीर को खत्म कर देने से ही आत्मा पवित्र हो जायगी। किन्तु हमें यह समझना चाहिए, कि जैनधर्म शरीर का खात्मा करने की बात नहीं करता। वह कहता है कि धर्म की साधना इसी शरीर के द्वारा होगी और कल्याण का रास्ता भी इसी शरीर के द्वारा प्राप्त किया जायगा। आवश्यकता पड़ने पर इसे तपाना भी है और कष्ट भी देना है, किन्तु इतना ही तपाना और कष्ट देना है, जितना आवश्यक हो। जहां केवल कष्ट देने का ही उद्देश्य है, वहाँ बालतप है, अज्ञानतप है । जब इस सिद्धान्त पर ध्यान देते हैं तब एक महत्वपूर्ण बात सामने आ जाती है । वह यह है कि यदि यह शरीर किसी विवेकशील साधक को मिलता है, तो वह कल्याण कर लेता है और यदि विवेक-शून्य को मिलता है, तो वह नरक और तिर्यज गति की राह तलाश कर लेता है । मगर इस में बेचारे शरीर का क्या दोष है ? यह तो उस के उपयोग करने वाले का दोष है । किसी के पास रुपया आया। उसने उस रुपये से खरीद कर दूध पिया, और दूसरे ने मदिरापान कर लिया। अब वह कहता है, कि यह रुपया बड़ा पापमय है, इसने मुझे शराब पिला दी है। उसका यह कहना, क्या आपको ठीक लगेगा ? आप कहेंगे-इसमें रुपया बेचारा क्या करे ? उसका क्या दोष है ? दोष तो उसी का है जिसने रुपये का दुरुपयोग किया है। बस यही बात शरीर के विषय में भी है। ___जो मनुष्य इस शरीर के द्वारा वासनाओं में भटकता है और शरीर की अद्भुत शक्ति को उसी में खर्च करता है, उस से जन-धर्म कहता है कि तू गलत काम कर रहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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