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________________ जीवन-रस ६३ किन्तु स्व-पर-कल्याण के लिए उसका सदुपयोग करना है। एक बहुत बड़े विद्वान ने कहा है शरीरमाद्यं खलु धर्म-साध —कालिय शरीर हमारी धर्म - साधना का एक मुख्य केन्द्र है । जब तक आप अपने इस शरीर में हैं, तभी तक आप साधु हैं और तभी तक आप श्रावक हैं, तथा जब तक आप इस शरीर में हैं, तभी तक आप संवर और पोषध आदि की साधना में हैं । इस शरीर को छोड़ जाने के बाद अगले भव में जन्म लेते ही क्या साधु या श्रावक धर्म की साधना हो सकती है ? आप को यह जो मानव शरीर मिल गया है, उसका ठीक-ठीक उपयोग करना ही विवेक-शीलता है । हम इसे वासनाओं की ओर न जाने दें, अन्धेरी गली में न भटकने दें । इस शरीर को हमें अपनी अध्यात्म-साधना के द्वारा तपाना है, यह नहीं कि इसे दूध मलाई खिलाते रहें और इतना फुला लें, कि मरें तो इसे उठाने के लिये चार आदमियों के बदले आठ आदमी लगें। यह जैन-धर्म का सिद्धान्त नहीं है। भगवान महावीर ने स्पष्ट रूप से यह कह दिया है कि हे साधक, तू अपने शरीर को तपा और सुकुमारता को छोड़ । साथ ही, अपनी कामनाओं पर भी विजय प्राप्त कर । तू द्वेष-वृत्ति को छेद डाल, और राग-भाव को भी दूर कर दे । बस, यही तेरे सुखी होने का सर्वोत्तम राज मार्ग है । कितना स्पष्ट और कितना सुन्दर निर्देश है । शरीर को तपाना तो है । पर, तन को तपाने के साथ-साथ मन की कामनाओं को भी नष्ट करना है, राग और द्वेष को भी नष्ट करना है । तन को भी साधना है और मन को भी साधना है । मन को तपाने के लिये ही तन को तपाने की जरूरत है । इसी को उभयतोमुखी साधना कहते हैं । शरीर को नष्ट कर देना, जैन धर्म का सिद्धान्त नहीं है, किन्तु सिद्धान्त यह है, कि आत्मा के कल्याण के लिए और जन-कल्याण के लिए भी इस शरीर को साधना है, तैयार रखना है । जब तक यह शरीर है, तब तक ही दया, करुणा एवं दान आदि पुनीत सद्गुणों की बड़ी-बड़ी फसलें तैयार हो सकती हैं, जिनके फल इस जन्म में ही और जन्मान्तर में भी प्राप्त किये जा सकते हैं । अतएव तपश्चरण के द्वारा और अन्य साधना के द्वारा उसे तपाया अवश्य जाए, किन्तु बर्बाद न किया जाए । घी में छाछ का अंश हो, तो उसे शुद्ध करने के लिए तपाना पड़ता है । जब घी को तपाना होता है, तब उसे आग में नहीं डाला जाता, उसके लिए पात्र चाहिए। घी के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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