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ब्रह्मचर्य - दर्शन
फैसला कर लिया था, कि सारे पापों की जड़ यह शरीर ही है। इसको जल्दी से जल्दी नष्ट कर डालने में ही आत्मा का कल्याण है और जीवन का मंगल है । शरीर का खात्मा होते ही हमारे लिए ब्रह्म-धाम का भव्य द्वार खुल जाएगा, सारे बन्धन ट्रक-ट्रक हो जाएँगे और अनन्त आनन्द की उपलब्धि हो जाएगी ।
उन्हें यह पता नहीं था, कि जब तक मन की कुवृत्तियां नष्ट नहीं होतीं, तब तक शरीर को अगर आग में भी झौंक दिया जाए, तब भी कोई लाभ होने वाला नहीं है । ऐसा करने से यदि पुराना शरीर छूट भी जाएगा, तो फिर नया शरीर मिलेगा ? इस से शरीर का आत्यन्तिक अभाव होने वाला नहीं, क्योंकि जब तक कारण नष्ट नहीं होता, तब तक तज्जन्य कार्य भी नष्ट नहीं हो सकते। आग जल रही है, उसमें हाथ डाल दिया जाए, और वह न जले, यह कैसे सम्भव हो सकता है ? इसी प्रकार शरीर को जन्म देने वाली तो वृत्तियां हैं -राग-द्वेष की परिणतियां हैं, क्रोध, मान, माया और लोभ रूप विकार हैं । जब तक इनका विनाश नहीं हो जाता, तब तक एक के बाद दूसरा शरीर धारण करना ही पड़ता है । इस आत्मा ने अनन्तअनन्त शरीर लिए है और छोड़े हैं । यदि शरीर को छोड़ देने मात्र से ही आत्मा का कल्याण हो जाता हो, तब तो संसार के प्रत्येक प्राणी का कल्याण कभी का हो गया होता ।
इसी दृष्टिकोण को सामने रख कर भगवान् महावीर ने इस प्रकार के तपों को बालतप कहा है, और अज्ञान-जनित काय - कष्ट कहा है । इस के पीछे कोरे कष्ट की साधना के सिवाय और कुछ भी नहीं है । जब इतनी बड़ी-बड़ी साधनाओं को, केवल कष्ट, बाल-तप या अज्ञान-तप कहा है, तो मैं समझता हूँ, कि उनका यह निर्णय, स्पष्ट निर्णय है । उनका यह निर्णय संसार के लोगों की आँखों को खोल देने वाला निर्णय है ।
यदि आँखों के द्वारा विकार उत्पन्न होता है, तो मन पर नियन्त्रण करो, आँखों को फोड़ देने से कुछ भी नहीं होगा । चोरी की है हाथों ने, तो उन को काट देने से ही कोई लाभ नहीं होगा । किसी को मारने दौड़े, या किसी की चीज उठाने दौड़े और सहसा पश्चात्ताप आया, और पैरों पर कुल्हाड़ा मार लिया, तो इस से आत्मा पवित्र नहीं हो जाएगी।
हाथ और पैर बहुमूल्य साधन हैं । जहाँ दूसरों को दुःख देने के लिए इनका प्रयोग किया जा सकता है, वहाँ दूसरों को सुख देने के लिए भी तो ये प्रयुक्त हो सकते । इनके द्वारा किसी को नदी में धक्का भी दिया जा सकता है, और नदी में किसी डूबते हुए को निकाल लेने में भी उनका उपयोग किया जा सकता है । ये तो हमारे साधन हैं। यदि इन साधनों का विवेक पूर्वक उपयोग किया जाए, तो कल्याण ही होगा । अतएव शरीर को या उसके किसी अवयव को नष्ट नहीं करना है,
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