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जोवन-रस
ही नहीं, तो विकार जागता भी कैसे ? उन्होंने लोहे की गरम शलाकाएँ लीं, अपनी आंखों में स्वयं अपने हाथों से भौंक ली, और जीवन-भर के लिये अन्धे बन गए।
आज-कल भी इस प्रकार के तपस्वी कहीं-कहीं पाए जाते हैं । एक सन्त थे, जिन्होंने दो-तीन वर्ष से अपने होठों को तार डाल कर सीं रक्खा था, जिस से बोल न सकें । यदि मुंह खुला रहेगा, तो बोल निकल जाएगा। उन्हें अपने ऊपर भरोसा नहीं था, तो मुंह को ही सों लिया । जब मुंह ही सों लिया, तब खाना कैसे खाएँ ? बस, छेदों में से आटे का पानी या दूध तुतई के द्वारा गले के नीचे उतारा जाने लगा। - यह साधक महोदय जब गान्धी जी से मिले, तब गान्धीजी ने पूछा-यह क्या कर रक्खा है, वह बहुत बड़ा विचारक था, किन्तु कभी-कभी बड़े-बड़े विचारक भी भ्रान्ति में पड़ जाते हैं। वह भी भ्रान्ति में पड़ गया था । उस ने गान्धी जी को लिखकर उत्तर दिया कि कि मैंने मौन ले रक्खा है, और वह कहीं भंग न हो जाए, इस डर से मैंने अपना मुँह सीं लिया है।
___गान्धीजी ने उससे कहा-"भले ही बाहर से न बोलो, किन्तु यदि अंदर से बोलने की वृत्ति नहीं टूटी, तो मुंह सी लेने से भी क्या होगा ? इसका अर्थ तो यह हुआ कि एक बुराई को-सम्भावित बुराई को मिटाने के लिए, दूसरी भलाइयों को भी नष्ट कर दिया जाए ? मुँह खुला होता, तो सम्भव है, कोई दुख में कराहता हुआ मिलता, तो उसे कुछ मधुर शब्द बोलकर सान्त्वना तो देते । और सम्भव है, कोई व्यक्ति आपके पास अध्ययन करने के लिए आता, तो उसका कुछ भला हो जाता । मुंह सी लेने से वह सब खत्म हो गया। इससे इतना ही तो हुआ, कि मुंह से कोई गलत शब्द न निकल जाए । किन्तु मन से तो वह वृत्ति नहीं निकली है ? यदि मन से वह वृत्ति निकल गई होती, तो मुंह सीने की आवश्यकता ही न रहती । अब तो यह स्थिति है, कि यह होठ भी सूज गए हैं । फ़िर भी मन कहाँ शान्त है ? तो आपने एक बुराई की सम्भावना को नष्ट करने के लिए, कितनी ही अच्छाइयों को नष्ट कर दिया।"
"वाणी के संयम के लिए मौन की साधना आवश्यक है, मौन का अभ्यास साधक को अन्र्तमुख बनाता है । अभ्यास-काल में यदि स्मृति भ्रश के कारण मुख से कभी कुछ बोल निकल भी जाए, तो कोई विशेष हानि नहीं है । बोलने पर ही नहीं, बोलने की वृत्ति पर नियंत्रण करो । और वह भी गलत एवं अनुचित बोलने की वृत्ति पर ।"
गान्धीजी की बात उसकी समझ में आ गई, और उसने अपने मुह के तार खोल दिए । गान्धीजी का तर्क सत्य को प्रकाशमान कर गया ।
मानव जीवन के बड़े ही विचित्र रूप हैं। भगवान् महावीर और पार्श्वनाथ के युग में भी कैसे-कैसे कठोर साधक मौजूद थे । जब आगमों में उनका वर्णन पढ़ते हैं, तब मालूम होता है, कि वे शरीर को नष्ट करने पर ही तुल पड़े थे। उन्होंने यह
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