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________________ ब्रह्मचर्य-दर्शन अहो कष्टमहो कष्टं पुनस्तत्वं न जायते ? कष्ट तो भयंकर है, किन्तु फिर भी तत्व की, सत्य की प्राप्ति नहीं हो रही है । अपने जीवन को होम रहे हैं, किन्तु वह अलौकिक प्रकाश नहीं मिल रहा है, जिसकी अपेक्षा है और जिसकी प्राप्ति के हेतु यह सब कुछ किया जा रहा है । __ कोई-कोई तापस सूखे पत्ते ही खाते हैं, और कोई वे भी नहीं खाते । कोई हवा का ही आहार करते हैं। कोई कन्द, मूल और फ़ल ही खाते हैं । यह एक कठोर साधना अवश्य है, परन्तु यह साधना बिना विवेक की है। भगवान महावीर के युग के साधकों का वर्णन आया है, कि वे भोजन लाते और इक्कीस-इक्कीस बार उसको पानी से धोते । धोते-धोते जब उसका नीरस भाग बाकी बच रहता, तब उसको ग्रहण करते थे। ऐसे वर्णन भी आते हैं, कि भिक्षा के पात्र में भिन्न-भिन्न कोष्ठक वनवा लेते और गृहस्थ के घर जाते, तो मन में सोच लेते, कि अमुक नम्बर के खाने में आहार डाला जायगा, तो पक्षियो को खिला दूंगा, अमुक में डाला हुआ अमुक को खिला दूंगा और अमुक खाने में डाला हुआ मैं स्वयं खाऊँगा । इस प्रकार दो, तीन, चार दिन भी हो जाते, और उसके निमित्त के खाने में आहार न पड़ पाता। दूसरों के निमित्त के खानों में ही आहार पड़ता चला जाता, तो आप भूखे रह जाते और वह आहार उसी को खिला दिया जाता, जिसके निमित्त के खाने में वह पड़ता था। इस प्रकार की कठोर साधनाएँ पिछले युग में होती थीं और कहीं-कहीं आज भी होती हैं । उक्त साधनाओं से अकामनिर्जरा होती है, यह सत्य है, परन्तु परम-तत्व की उपलब्धि इनसे नहीं हो पाती, अतएव आध्यात्मिक दृष्टि मे उनका कुछ भी मूल्य नहीं है । और ऐसी कठोर साधनाओं की चरम-सीमा यहीं तक नहीं है । इनसे भी भयानक साधनाएं की जाती हैं । चले जा रहे हैं, किसी की कोई चीज पड़ी हुई.दीख गई, और उसे उठा लिया, मगर उठाने के बाद खयाल आया, बहुत गुनाह किया, किसी की चीज उठा ली । फिर सोचा-यदि यह हाथ न होते, तो कैसे उठाता ? और यह पर न होते, तो कैसे उठाने जाता ? इन हाथों और पैरों की बदौलत ही मैं पाप के कीचड़ में गिर गया, तो, इन्हें समाप्त ही क्यों न कर दूं? न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी ! इस प्रकार सोच कर, उन्होंने अपने हाथों-पैरों को क्या सजा दी ? उन्होंने अपने हाथ और पैर ही काट लिए। ऐसा भी वर्णन आता है, कि कहीं चले जा रहे हैं और किसी सुन्दर स्त्री पर दृष्टि पड़ गई, विकार जाग उठा। विकार जाग उठा, तो सोचा कि इन आँखों के कारण ही विकार जागा है । यदि आँखें न होती, तो मैं देखता ही नहीं, और देखता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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