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________________ जीवन-रस ५६ नाएँ करते हैं, किन्तु फिर भी आत्मा को मजबूत नहीं बना पाते हैं । आत्मा को सतेज नहीं कर पाते। भगवान् पार्श्वनाथ और महावीर के युग में ऐसे साधकों की संख्या बहुत अधिक थी, जिन्हें अपनी साधना के सही लक्ष्य और उपायों का ठीक-ठीक परिज्ञान नहीं था, किन्तु जो शरीर को ही दण्डित करने पर तुले हुए थे । भगवान् महावीर ने उनके लिए जिस शब्द का प्रयोग किया है, वह कड़ा तो है, मगर सचाई भी उसमें भरपूर है । भगवान् ने ऐसी साधना को बाल-तप और अज्ञान-कष्ट कहा है। क्योंकि उस तप के पीछे विवेक नहीं है । और बिना विवेक के धर्म की साधना कैसे हो? ___अभिप्राय यह है, कि जो लोग इस शरीर को ही दण्ड देने पर तुल गए हैं ; इसे बर्वाद करने को तैयार हो गए हैं, वे समझते हैं, कि बुराइयाँ सब शरीर में ही हैं, सारे अनर्थों का मूल शरीर ही है । यदि इस शरीर को नष्ट कर दिया जाए, तो आत्मा स्वतः पवित्र हो जाएगी। इस प्रकार की धारणा से प्रेरित होकर, वे बड़ा भयंकर तप करते हैं । कोईकोई साधक अपने चारों ओर धूनियाँ धका लेते हैं और ऊपर से सूर्य की कड़ी धूप को झेलते रहते हैं । जेठ के महीने में पंचाग्नि-ताप से तप कर अपने शरीर को कोयले का ढेर बना लेते हैं। उनकी अपनी समझ में शरीर की चमड़ी क्या जलती है, मानों आत्मा के विकार जलते हैं । जब कड़ी सरदी पड़ती है, तब ठंडे पानी में खड़े हो जाते हैं। घंटों खड़े रहते हैं, और शीत की वेदना को सहन करते रहते हैं। वे समझते हैं, कि ऐसा करने से हमारी आत्मा पवित्र हो रही है। कोई-कोई तापस ऐसे भी हैं, जिन्होंने खड़े रहने का ही नियम ले लिया है । मैंने एक वैष्णव साधु को देखा है, जो सात वर्षों से खड़ा था। उसके पैर सूज कर स्तम्भ जैसे हो रहे थे और खून सिमट कर नीचे की ओर जा रहा था। उसने एक झूला डाल रक्खा था, कि जब खड़ा न रहा जाए, तब उस पर झुक कर आराम ले लिया जाए । किन्तु रहे खड़ी अवस्था में ही । मैंने उसे इस रूप में देखा और पूछाआप यह क्या कर रहे हैं ? उस साधु ने उत्तर दिया-“मैंने बारह वर्ष के लिए खड़े रहने का व्रत ले लिया है । खड़ा ही खाता हूँ, शौच जाता हूँ और सोता हूँ। उक्त तप साधना से अवश्य ही एक दिन मुझे प्रभु दर्शन होंगे, बैकुण्ठवास प्राप्त होगा।" । उसको साधना कठोर है, वह अपने शरीर को जो यातना दे रहा है, वह असाधारण है, इससे इन्कार भी नहीं किया जा सकता, परन्तु मुझे भगवान पार्श्वनाथ का अग्नि-तापस कमठ को दिया गया उपदेश याद आ रहा है - For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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