________________
प्रवचन
जीवन-रस
हमारा जो वर्तमान जीवन है, वह शरीर और आत्मा दोनों के सुमेल का प्रति फल है । जीवन में शरीर भी है और आत्मा भी है। तात्विक दृष्टि से शरीर, शरीर है और आत्मा, आत्मा है। शरीर जड़ है, वह पंच भूतों से बना हुआ है। आत्मा चिदानन्दमय है । वह किसी से भी बना हुआ नहीं है। इस जीवन का जब अन्त होता है, तब यह दृश्य शरीर यहीं पड़ा रह जाता है, और उसका अधिष्ठाता आत्मा अपनी अगली महायात्रा के लिए चल पड़ता है। शरीर, आत्मा नहीं हो सकता और आत्मा, शरीर नहीं हो सकता। दोनों तत्वतः एक-दूसरे से भिन्न हैं ।
___ इस प्रकार दोनों की सत्ता मूलतः पृथक् पृथक होने पर भी, दोनों में बहुत घनिष्ठ और महत्त्व-पूर्ण सम्बन्ध भी है। दोनों का एक-दूसरे की क्रिया पर गहरा प्रभाव भी पड़ता है। यही कारण है, कि जब हम जीवन के सम्बन्ध में विचार करते हैं, तब शरीर और आत्मा दोनों हमारी नजरों में झूलने लगते है, और इनमें से किसी एक की भी उपेक्षा करके हम दूसरे का विचार नहीं कर सकते । अगर कोई व्यक्ति इस प्रकार एकांगी विचार करता भी है, तो वह अपने जीवन के विषय में शुद्ध दृष्टिकोण उपस्थित नहीं कर सकता ।
इस स्थिति में मनुष्य का यही कर्तव्य है, कि वह आत्मा और शरीर दोनों का यथोचित विकास करे, दोनों को ही सशक्त बनाए, दोनों में ही किसी प्रकार की गड़बड़ न होने दे।
___ कई पन्थ ऐसे हैं, जो केवल आत्मा की ही बातें करते हैं, और जब वे बातें करते हैं, तब उनका मुद्दा यही होता है, कि शरीर बीमार रहता है, तो रहा करे ! हमें इससे क्या सरोकार है। इसे तो एक दिन छोड़ना है । जब एक दिन छोड़ना ही है, तब इसका क्या लाड़-प्यार। यह तो मिट्टी का पुतला है । जब टूट जाए तभी ठीक है । इस प्रकार की मनोवृत्ति के कारण वे अपने शरीर की ओर यथोचित ध्यान नहीं दे पाते हैं।
इस प्रकार का विचार रखने वाले लोग बड़ी लम्बी-लम्बी और कठोर साध
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org