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शक्ति का केन्द्र बिन्दु
एक सज्जन हैं, जो एक बड़े भारी मन्दिर का निर्माण करा रहे हैं । आज इस दरिद्र देश की सम्पत्ति को नये मन्दिरों के निर्माण में लगाना कहाँ तक उचित है, इस प्रश्न की मीमांसा यहाँ नहीं करनी है और न किसी सैद्धान्तिक दृष्टि से ही विचार करना है । हमें यहाँ उसकी नींव की ही बात का उल्लेख करना है । वे उस मन्दिर पर तीन करोड़ रुपया खर्च करना चाहते हैं। मंदिर के लिए गहरी नींव खुदवा रहे थे, तो एक सज्जन ने उनसे कहा -साठ फुट जमीन तो नींव के लिए खोद ली गई है, अब और कितनी खुदवाओगे ? क्या पाताल के तल पर नींव रखोगे ?
निर्माण कर्त्ता ने उत्तर दिया-सौ, दो सौ या तीन सौ फुट भी क्यों न नींव खुद जाए, किन्तु जहाँ मजबूत चट्टान आ जाएगी, वहीं पर नींव रख देंगे । पचास या साठ फुट पर नींव रखने का संकल्प हम ने नहीं किया है, हमारा संकल्प यह है, कि जहाँ मजबूत चट्टान आएगी, वहीं नींव रखेंगे। मेरी कल्पना के अनुसार अगर नींव रखी गई, तो उस पर खड़ी हुई दीवारें और भव्य भवन प्रकृति के भीषण भटकों को चिर काल तक भी बरदाश्त कर लेंगे ।
जीवन-निर्माण के विषय में भी यही सिद्धान्त लागू होता है । निस्सन्देह जीवन में अध्यात्मवाद महत्त्वपूर्ण है, किन्तु उसको हमें उचित एवं अपेक्षित भौतिकता से भी मजबूत बनाना है । वैदिक दर्शन में भी कहा गया है
'नायमात्मा बल होनेन लभ्यः
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— मुण्डकोपनिषद्
जो शरीर से निर्बल है, और असमर्थ है, उसे आत्मा के दर्शन नहीं हो सकते । बलवति शरीरे बलवत श्रात्मनो निवासः ।
बलवान् शरीर में ही बलवान् आत्मा का निवास होता है । दुर्बल शरीर में बलवान् आत्मा कभी नहीं रह सकता ।
इस प्रकार जो आत्मा अपनी साधना की मंजिल को तय करने चला है, उसे अपने शरीर की मजबूती को भी भूल नहीं जाना चाहिए ।
ब्रह्मचर्य की शक्ति से सब से पहले हमारे शरीर का धारण होता है, उसे सबल बनाया जाता है और उसका वास्तविक निर्माण किया जाता हैं। शारीरिक शक्ति ब्रह्मचर्य के अभाव में नहीं आती । अतएव शारीरिक शक्ति के द्वारा आध्यात्मिक क्षमता को प्राप्त करने के लिए ब्रह्मचर्य की आवश्यकता होती है । ब्रह्मचर्य की साधना करके शरीर को जितना सबल बनाया जाएगा, उतना ही वह संसार के तूफानों को और साधना में आने वाले संकटों को सहज भाव से सहन करने में समर्थ हो सकेगा ।
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ब्यावर ६-११-५०
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