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________________ ब्रह्मचर्य-वर्शन आपको मालूम होना चाहिए, कि हमारे यहाँ 'संहनन' और 'संठाण' (आकृति) का सूक्ष्म विचार किया गया है । शरीर की आकृति कैसी है, वह ऊँचा है या नीचा है, यह सब संस्थान कहलाता है । और शरीर की सबल-निर्बल रचना-विशेष और हड्डियों का बल, यह सब संहनन है। जब मोक्ष को बात आई, तब कहा, कि मोक्ष के लिए कोई विशेष संस्थान अपेक्षित नहीं है। शरीर समचतुरस्र हो, तो भले हो, और न हो, तो भी कोई हानि नहीं है । शरीर की आकृति सुन्दर हो, तो भी ठीक है और न हो, तो भी कोई बुराई नहीं। न आकृति की सुरूपता से मोक्ष मिलता है और न आकृति की कुरूपता से मोक्ष अटकता है । शरीर की सुन्दरता-असुन्दरता का प्रश्न मुख्य नहीं है, प्रश्न है-बल का, शक्ति का। अतः उत्तम संहनन अवश्य ही अपेक्षित है । यहाँ आकर जैन-धर्म जितना अध्यात्मवादी है, उतना ही भौतिकवादी भी बन गया है । जैनधर्म जब मोक्ष की साधना के लिए चला, आत्मा के बन्धनों को तोड़ने के लिए चला और जीवन की मंजिल को पार करने के लिए चला, तब उसने आत्मा की बातें कहीं। ६६६ बातें आत्मा की कहीं, तो एक बात शरीर के सम्बन्ध में भी कह दी। इस रूप में वह भौतिकवादी भी हो गया। जैनधर्म ने कहाकितना हो सुन्दर शरीर क्यों न हो, उससे मोक्ष नहीं मिलेगा। किन्तु जब वज्रऋषभ नाराच संहनन होगा, तभी मोक्ष मिलेगा। बज्रऋषभनाराच संहनन के अभाव में किसी को भी मोक्ष नहीं मिल सकता । जैनधर्म ने विचार किया है, कि ऊंचे विचार, ऊँचे संकल्प, उच्च भावना, अपने सिद्धान्त पर अड़े रहने का बल और संसार के संघर्षों में रहते हुए भी अपने पर न उखड़ने देने का बल, वज्र ऋषभ नाराच संहनन में ही मिल सकता है। _ इस का तात्पर्य यह है, कि हमारा अध्यात्मवाद एक प्रकार से भौतिकता की नींव पर खड़ा है, और उसका आधार शरीर-बल को भी बना दिया गया है। किन्तु, साधक भटक न जाए, भ्रम में न रह जाए, इसलिए जैनधर्म साथ ही यह भी कहता है, कि वजऋषभनाराच के होने पर ही मोक्ष मिलता है, यह सही है, पर यह सही नहीं, कि उसके होने पर मोक्ष मिलता ही हो। वज्रऋषभनाराच संहनन, मोक्ष की अनेक आध्यात्मिक अनिवार्यताओं के साथ, एक भौतिक अपरिहार्यता-अनिवार्यता है । पर, अन्त में शरीर को छोड़ना है, वज्रऋषभ नाराच संहनन को भी छोड़ना है, परन्तु यह छोड़ना तभी सम्भव होगा, जब कि पहले साधना-काल में वह संहनन होगा। किसी भी महल की नींव अगर ठोस जमीन पर रखी गई होगी, तो उसकी मंजिलें भी ऊंची चढ़ती जाएगी। यदि भूमि दलदल वाली है, और उसमें ठोसपन नहीं है, इस स्थिति में यदि कोई व्यक्ति संगमरमर का महल उस पर खड़ा करना चाहे, तो उसका वह प्रयास निष्फल होगा। वह महल कदाचित् खड़ा हो भी गया, तो अधिक समय तक ठहरने वाला नहीं है । किसी भी समय वह धरा-शायी हो सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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