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________________ ब्रह्मपर्व-वासन तब गुरु ने कहा-अरे, गुरु तो कम्बल को छोड़ना चाहता है, किन्तु कम्बल ही गुरु को नहीं छोड़ रहा है। __जो बात गुरु और शिष्य की है, वही बात सारे संसार की है। हमने किसी पीज को चाहा, और उसे पकड़ने गए और पकड़ लिया, परन्तु बहुत बार ऐसा होता है, कि वही चीज हमें पकड़ लेती है, और ऐसा कस कर पकड़ लेती है. कि सारी जिन्दगी बीत जाती है, फिर भी वह पिण्ड नहीं छोड़ती। संसार की यह दशा है। इस दशा से मुक्ति पाने के लिए ही अहिंसा, सत्य, अस्तेय और ब्रह्मचर्य की कला बतलाई गई है। मनुष्य, अपनी अन्तः शक्ति का प्रयोग करे, तो एक ही झटके में इस दशा से अपने आपको छुड़ा सकता है, किन्तु मन की गति बड़ी विचित्र है, वह सब पर सवार जो है। मन को जीतना बड़ा कठिन है। बात यह है, कि मन भी आत्मा की ही एक शक्ति है, आत्मा ने ही उसे जन्म दिया है । अब जन्म देने वाले में यह कला भी होनी चाहिए, कि वह उसे अपने वश में रख सके । किन्तु वह भूत एक ऐसा भूत है, कि जिसे जगा तो दिया है, किन्तु उसे वश में रखने की यदि शक्ति नहीं है, तो वह जैसा चाहेगा, वैसा करेगा । उसके नचाए नाचना पड़ेगा। - हमारे मन ने हमको पकड़ लिया है। सारी जिन्दगी मन की गुलामी करतेकरते बरबाद हो जाती है, फिर भी उससे पिण्ड नहीं छूटता। वह कितने खेल-खेलता है, कितना नाच नचाता है। हमारी शक्ति वरदान बनने के बजाय अभिशाप बन जाती है। अनन्त-अनन्त काल बीत गया है और बीतता जा रहा है। मगर मन पासनानों को नहीं छोड़ता। वह कभी तृप्त नहीं होता, कभी ऊबता नहीं । जब देखो, तभी भूखा-का-भूखा बना रहता है। मन पर हमको सवार होना चाहिए था, पर, वह हम पर सवार हो गया है।। मन की गति का प्रवाह किसी भी क्षण शान्त नहीं होता है। आप किसी नदी के किनारे खड़े हो जाएं तो देखेंगे, कि नदी की धारा निरन्तर बहती जा रही है एक बूंद के पीछे दूसरी और तीसरी बूंद बह रही है। निरन्तर अविश्रान्त-गति से प्रवाह बहता रहता है । ठीक यही हालत मन-सरिता के प्रवाह की है । सोते-जागते प्रत्येक क्षण मन की नदी भी बहती रहती है । हमारी चेतना का प्रवाह एक क्षण के लिए भी नहीं रुकता। मन की वृत्ति क्षण-क्षण में बदलती रहती है। किन्तु धन्य है वह, जो मन पर सवार हो गया है और जो मन को धाराको अपने अधिकार में रखता है। जिधर चाहता है, उधर ही मन, शरीर और इन्द्रियाँ दौड़ती हैं। सारा शरीर उसकी मात्रा में है। सेनापति की आज्ञा में हजारों-लाखों वीरों की सेना होती है । उसके परा से संकेत पर हजारों-लाखों तलवारें म्यान से बाहर होकर चमचमाने लगती हैं और तत्काल उसकी दूसरी माज्ञा पर चुपचाप फिर उसी म्यान में रख दी जाती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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