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________________ ५२ ब्रह्मचर्य - दर्शन ली है । यह नहीं कि 'अप्पाणं वोसिरामि' कहा और बस, उसी दिन ब्रह्मचर्यं की पूरी साधना हो गई। उसी दिन यदि अहिंसा, सत्य और ब्रह्मचर्य पूरे हो गए, और जो भी साधुत्व-भाव की साधना है, वह पूरी हो गई, तो फिर आगे के लिए जीवन संसार में क्यों है ? अब उसे करना क्या है ? उसे जो कुछ भी पाना था, वह पा हो चुका है । उसी घड़ी और उसी क्षण पा चुका है। उसके जीवन में पूर्णता आ गई है । अशुद्धि जीवन में रही ही नहीं । फिर, अब वह किससे लड़ता है ? किस लिए साधना कर रहा है ? और साधना के मार्ग पर जो कदम सँभाल कर रख रहा है, वह आखिर, किस प्रयोजन से रख रहा है ? यदि साधुत्व की प्रतिज्ञा लेते ही ब्रह्मचर्य, सत्य और अहिंसा आदि में पूर्णता आ जाती है, तो इसका अर्थ यह हुआ कि चारित्र में पूर्णता आ जाती है । चारित्र पूर्णता आ जाने पर, आप जानते हैं, मनुष्य की क्या स्थिति होती है ? चारित्र की परिपूर्णता आत्मा में परमात्म-दशा पैदा कर देती है, और मुक्ति प्रदान करती है । फिर तो कोई भी साधक साधुत्व की प्रतिज्ञा लेने के साथ ही सिद्ध, मुक्त क्यों नहीं हो जाता ? बुद्ध और साधुत्व-भाव की प्रतिज्ञा, प्रतिज्ञा है, और अब जीवन भर उस प्रतिज्ञा के मार्ग पर चलना है, और निरन्तर चलना है । परन्तु चलता चलता साधक कभी लड़खड़ा भी जाता है, भटक भी जाता है । चिर काल के संचित संस्कार कभी-कभी दबाने का प्रयत्न करने पर भी उभर आते हैं, और मन को गड़-बड़ में डाल देते हैं । मन एक ऐसा घोड़ा है, इतना हठी और चंचल है, कि सवार ले जाना चाहता है, उसे और दिशा में और वह दौड़ पड़ता है, किसी और ही दिशा में । वह सवार की आज्ञा नहीं मानता है। सवार दुर्बल है और घोड़ा बलवान् है । गीता में अर्जुन ने कहा है चञ्चलं हि मनः कृष्ण, प्रमाथि बलवद् दृढम् । पूर्ण साधना के क्षेत्र में उपस्थित होकर, साधक को, अपने उक्त मन के घोड़े पर नियन्त्रण करना है। धीरे-धीरे जब ज्ञान की बागडोर 'सवार' के हाथ में आ जाती है, तब वह घोड़े को अपनी अभीष्ट दिशा की ओर ले जाता है । मन के सम्बन्ध में एक संत कहता है Jain Education International मन सब पर सवार है, मन के मते अनेक । जो मन पर प्रसवार है, वह लाखन में एक ॥ मन सब पर सवार है । कहने को तो कहते हैं कि घोड़े पर सवार चढ़ा हुआ है, किन्तु मन का घोड़ा, एक ऐसा घोड़ा है कि वह सवार पर ही सवार रहता है, और For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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