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ब्रह्मचर्य - दर्शन
ली है । यह नहीं कि 'अप्पाणं वोसिरामि' कहा और बस, उसी दिन ब्रह्मचर्यं की पूरी साधना हो गई। उसी दिन यदि अहिंसा, सत्य और ब्रह्मचर्य पूरे हो गए, और जो भी साधुत्व-भाव की साधना है, वह पूरी हो गई, तो फिर आगे के लिए जीवन संसार में क्यों है ? अब उसे करना क्या है ? उसे जो कुछ भी पाना था, वह पा हो चुका है । उसी घड़ी और उसी क्षण पा चुका है। उसके जीवन में पूर्णता आ गई है । अशुद्धि जीवन में रही ही नहीं । फिर, अब वह किससे लड़ता है ? किस लिए साधना कर रहा है ? और साधना के मार्ग पर जो कदम सँभाल कर रख रहा है, वह आखिर, किस प्रयोजन से रख रहा है ?
यदि साधुत्व की प्रतिज्ञा लेते ही ब्रह्मचर्य, सत्य और अहिंसा आदि में पूर्णता आ जाती है, तो इसका अर्थ यह हुआ कि चारित्र में पूर्णता आ जाती है । चारित्र पूर्णता आ जाने पर, आप जानते हैं, मनुष्य की क्या स्थिति होती है ? चारित्र की परिपूर्णता आत्मा में परमात्म-दशा पैदा कर देती है, और मुक्ति प्रदान करती है । फिर तो कोई भी साधक साधुत्व की प्रतिज्ञा लेने के साथ ही सिद्ध, मुक्त क्यों
नहीं हो जाता ?
बुद्ध और
साधुत्व-भाव की प्रतिज्ञा, प्रतिज्ञा है, और अब जीवन भर उस प्रतिज्ञा के मार्ग पर चलना है, और निरन्तर चलना है । परन्तु चलता चलता साधक कभी लड़खड़ा भी जाता है, भटक भी जाता है । चिर काल के संचित संस्कार कभी-कभी दबाने का प्रयत्न करने पर भी उभर आते हैं, और मन को गड़-बड़ में डाल देते हैं । मन एक ऐसा घोड़ा है, इतना हठी और चंचल है, कि सवार ले जाना चाहता है, उसे और दिशा में और वह दौड़ पड़ता है, किसी और ही दिशा में । वह सवार की आज्ञा नहीं मानता है। सवार दुर्बल है और घोड़ा बलवान् है । गीता में अर्जुन ने कहा है
चञ्चलं हि मनः कृष्ण, प्रमाथि बलवद् दृढम् ।
पूर्ण साधना के क्षेत्र में उपस्थित होकर, साधक को, अपने उक्त मन के घोड़े पर नियन्त्रण करना है। धीरे-धीरे जब ज्ञान की बागडोर 'सवार' के हाथ में आ जाती है, तब वह घोड़े को अपनी अभीष्ट दिशा की ओर ले जाता है ।
मन के सम्बन्ध में एक संत कहता है
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मन सब पर सवार है, मन के मते अनेक । जो मन पर प्रसवार है, वह लाखन में एक ॥
मन सब पर सवार है । कहने को तो कहते हैं कि घोड़े पर सवार चढ़ा हुआ
है, किन्तु मन का घोड़ा, एक ऐसा घोड़ा है कि वह सवार पर ही सवार रहता है, और
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