SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भक्ति का ना-बिनु ब्रह्मचर्य हैं। मतलब यह है, कि ब्रह्म के लिए, परमात्म-भाव के लिए चलना, गति करना, उन्मुख होना, उस ओर अग्रसर होना, उसके लिए साधना करना, बस, यही ब्रह्मचर्य का अर्थ है । तात्पर्य यह है कि जो जीवन में परमात्म-भाव की ज्योति मलका देता है, वही ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य, जीवन में परमात्म-भाव की ज्योति, इसलिए झलका देता है कि उसकी साधना में दूसरे विकारों का दमन करना भी आवश्यक बन जाता है और दूसरे विकारों के दमन करने का अर्थ है, महान् अन्तःसंघर्ष। देखा जाता है, कि मनुष्य बाहर की धर्म-क्रियाएं तो बड़ी सरलता के साथ निभा लेता है, तिलक-छापे लगा कर, माला धारण करके, जटाएँ बढ़ाकर या मुंडा पूरा धार्मिक बन जाता है, मगर परमात्मभाव की प्राप्ति के निमित्त ब्रह्मचर्य का पालन करना उसके लिए बहुत कठिन पड़ता है। उसके मन के भीतर अनेक द्वन्द्व उठ खड़े होते हैं। ऐसे समय में अनेक विकार जाग उठते हैं और विकारों की छाया में मनुष्य का मन बार-बार मनुष्य से कहता है-पीछे लौट । दुनिया में आया है, तो दुनियाँ के सुखों को भोग ले । भोगों से उदासीन क्यों होता है ? मूर्ख ! इस तरह से स्वयं को कसने में क्या रक्खा है? मन की ऐसी बातें सुनकर, साधक बार-बार अपने साधना-पथ से विचलित होता है और ठोकर खाकर कभी-कभी गिरने की, पथ-च्युत होने की भी बात सोचता है । और ऐसा देखा जाता है, कि कभी पीछे लौट भी जाता है। तो, इस कठिन-कठोर ब्रह्मचर्य के मार्ग पर कोई बिरला ही ठहर पाता है, आगे बढ़ पाता है और साधना के अन्तिम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त करता है। इस सम्बन्ध में राजर्षि भर्तृहरि ने बहुत ही स्पष्ट शब्दों में कहा है मत्त भकुम्भ-दलने भुवि सन्ति शूराः, केचित् प्रचण्ड-मृगराज-बषेऽपि बक्षाः । किन्तु ब्रवीमि बलिना पुरतः प्रसा, कन्दर्प-वर्ष-दलने विरला मनुष्याः ॥ धर्म-शास्त्रों की विधान की भाषामें साधु का ब्रह्मचर्य पूर्ण माना जाता है । परन्तु वह पूर्णता, बाह्य प्रत्याख्यान की दृष्टि से है। पूर्ण ब्रह्मचर्य का लक्ष्य रख कर की जाने वाली एक महान् प्रतिज्ञा-मात्र है । साधु स्व और पर स्त्री दोनों का ही त्याग करके चलता है । उसकी साधना में गृहस्थ के समान स्वस्त्री की भी छूट नहीं रहती है । बस, इसी दृष्टि को ध्यान में रखकर साधु के ब्रह्मचर्य को पूर्ण बताया गया है । अन्यथा, अन्तर्जीवन में टटोल कर देखें, तो क्या वस्तुतः उसका ब्रह्मचर्य पूर्ण हो गया है क्या उसके सभी अन्तर्द्वन्द्व समाप्त हो गए हैं—क्या वासना की सभी बूंदें सूख गई हैं ? नहीं, यह सब कुछ नहीं हुआ है । अभी साधु को भी मन के विकारों से एक लम्बी लड़ाई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy