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________________ ब्रह्मचर्य-दर्शन भिन्न हैं, जो इस परम-तत्व को समझ लेते हैं और उसमें आस्थावान हो जाते हैं, वे शरीर में रहते हुए भी शरीर से अलग मालूम होते हैं । गुजरात के एक अध्यात्म-योगी ने कहा है, कि बेह छतां जेनी दशा बत देहातीत । ते मानीनां चरणमां वन्दन हो अगणीत । इसे स्व-पर विवेक कहें, भेद-विज्ञान कहें, आत्मा-अनात्मा का भान कहें, या आत्मानुभूति कहें, वास्तव में यही धर्म है । समस्त साधनाएँ और सारे क्रिया-काण्ड इसी अनुभूति के लिए हैं। व्रत, नियम, तप और जप, आदि का उद्देश्य इसी अनुभूति को पा लेना है । ज्ञान, ध्यान, सामायिक और स्वाध्याय इसी के लिए किए जाते हैं। जिस साधक को यह भेद-विज्ञान प्राप्त हो गया उसकी मुक्ति हो गई, उसके भव-भव के बन्धन छिन्न-विच्छिन्न हो गए, वह कृतार्थ हुआ और शुद्ध सच्चिदानन्दमय बन गया। आज कल धर्म के सम्बन्ध में इतना संघर्षमय वातावरण बन गया है, कि साधक को सही राह नहीं मिलती है और वह चक्कर में पड़ जाता है कि किधर चले और किधर नहीं ? धर्म के वास्तविक रूप को समझना उसके लिए मुश्किल हो जाता है ! वास्तव में धर्म क्या है ? जितना-जितना पुद्गल का और जड़ का अंश कम होता जाता है, और जड़ के निमित्त से आत्मा में पैदा होने वाले विकार जितनेजितने कम होते जाते हैं, उतनी ही उतनी आत्मा, शुद्ध होती जाती है । आत्मा में जितनी-जितनी यह शुद्धि बढ़ती जाती है, वह धर्म है, और वह धर्म, जितना-जितना बढ़ता जाता है, उतना-उतना वह हमारे बन्धनों को तोड़ता चलता है. और जैसे-जैसे बंधन टूटते जाते हैं, परम- पद मोक्ष प्राप्त होता जाता है। यही आत्मा की मूल और सही स्थिति है । हमारी इस स्थिति में ब्रह्मचर्य क्या करता है ? इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए हमें ब्रह्मचर्य शब्द का अर्थ समझ लेना आवश्यक है। 'ब्रह्मचर्य' में एक 'ब्रह्म' और दूसरा 'चर्य' शब्द है। व्याकरण की दृष्टि से शब्दों की बनावट पर ध्यान देना चाहिए। किसी भी शब्द का जब तक विश्लेषण करके न देख लें तब तक उसका जो महत्त्वपूर्ण अर्थ है, वह हमारी समझ में नहीं आता है। ब्रह्मचर्य संस्कृत-भाषा का शब्द है और व्याकरण के अनुसार जब उसका विश्लेषण करते हैं, तब दो शब्द हमारे सामने आते हैं । 'ब्रह्म' और 'चर्य', इन दो शब्दों से मिलकर एक 'ब्रह्मचर्य' शब्द बना है। ___ब्रह्म' का अर्थ है-शुद्ध आत्म-भाव । शुद्ध आत्म-भाव कहिए, या परमात्म'भाव' कह लीजिए, बात एक है । 'ब्रह्म' की ओर 'चर्या' करना, गति करना, या चलना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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