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________________ शक्ति का केन्द्र-बिन्दु ४६ षण किया जाता है, कि यह अमुक है, और यह अमुक है । विचारक के मन में भी अवश्य ही विश्लेषण -बुद्धि उत्पन्न होती है। साधक, चाहे वे गृहस्थ हों, अथवा साधु हों, एक ही ध्येय लेकर आए हैं। और वह महान् ध्येय यही है, कि आत्मा को अलग, और शरीर, इन्द्रिय एवं मन को अलग समझ लें । आत्मा में पैदा होने वाले औदयिक-भावों को, क्रोध आदि विकारों को अलग समझ लें, और शुद्ध आत्मा को अलग समझ लें। जिस साधक ने यह समझ लिया, वह अपनी साधना में दृढ़ बन गया। फिर संसार का कोई भी सुख या दुःख उसको विचलित नहीं कर सकता । जब तक यह भूमिका नहीं आती है, तब तक मनुष्य, सुख से मचलता है और दुःख से घबराता है । जीवन की दोनों दशाएँ हैं -एक सुख और दूसरी दुःख । किन्तु, जब उक्त भेद-विज्ञानदशा को प्राप्त कर लिया जाता है, तब न सुख विचलित कर सकता है और न दुःख ही । जब दुःख आए, तब दुःख में न रहकर आत्मा में रहे, और जब सुख आए, तब भी सुख में न रह कर आत्मा में रहे । और समझ लिया जाए, कि यह तो संसार की परिणति है । जो कुछ भी अच्छा या बुरा चल रहा है, वह आत्मा का अपना नहीं है । यह आत्मा का स्व-स्वरूप नहीं है। यह तो पुद्गल के निमित्त से आत्मा में उत्पन्न होने वाली विभाव-परिणति है । जब तक है, तब तक है, और जब चली जाएगी, तो फिर कुछ नहीं है । इस प्रकार भेद-विज्ञान की भूमिका प्राप्त कर लेने वाला साधक अपने स्वरूप में रमण करने लगता है । ____ जैन-धर्म का यही दर्शन है । जैन-धर्म में बतलाए गए चौदह गुणस्थान और क्या हैं ? वे यही बतलाते हैं कि अमुक भूमिका में पहुंचने पर सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाएगी और अमुक भूमिका में जाने पर क्रोध, मान, माया और लोभ छूट जाएंगे और अमुक भूमिका में जाकर ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोह और अन्तराय कर्म हट जाएँगे और फिर आगे की भूमिका में आयुष आदि शेष चार कर्म भी दूर हो जाएंगे । इसके पश्चात् आत्मा सर्वथा विशुद्ध परमात्म-स्वरूप को प्राप्त कर लेगी। यह है, जैन-दर्शन की आध्यात्मिक वस्तु-स्थिति ! ____ अहिंसा, सत्य, अस्तेय और ब्रह्मचर्य की जो साधना है, वह किस रूप में है ? इसी रूप में कि हम इस शरीर में रहते हुए भी शरीर से अलग हो सकें। शरीर में रहते हुए भी शरीर से अलग होने का अर्थ क्या है ? अर्थ यह है, कि कर्मों का क्षय तो जब होगा, तब होगा, किन्तु हम अपनी विवेक बुद्धि से तो उनसे पहले ही अलग हो सकें ! जब तक आयु कर्म की सत्ता मौजूद है, हमें शरीर में रहना है और जब तक नाम कर्म की धारा बह रही है, तब तक शरीर से पृथक् नहीं हो सकते-एक के बाद एक शरीर का निर्माण होता ही जाएगा, किन्तु यह शरीर और ये इन्द्रियाँ आत्मा से For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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