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________________ शक्ति का केन्द्र-हिन्दु रूपान्तर होता रहता है, मगर वह रूपान्तर चेतन के निमित्त से नहीं होता। अंतः उस समय उनके जो पर्याय होते हैं, वे शुद्ध जड़-पर्याय कहे जाते हैं । उस समय उन पुरगलों को पुद्गल ही कहा जा सकता है, जड़ ही कह सकते हैं, कम नहीं कह सकते । उन पुद्गलों में कर्म-रूप पर्याय की उत्पत्ति तभी होती है, जब योग और कषाय से प्रेरित होकर आत्मा उन्हें ग्रहण करती है। जब वे पुद्गल, आत्म-प्रदेशों के साथ एकमेक हुए और उनमें कार्मिक शक्ति उत्पन्न हो गई, तब उन्हें कम-संज्ञा प्राप्त हुई, अर्थात् उनमें कर्म-रूप पर्याय की उत्पत्ति हुई । जब तक वे आत्मा के साथ सम्बद्ध रहेंगे-आत्मा के साथ चिपटे रहेंगे, कर्म कहलाते रहेंगे । जब आत्मा से अलग हो जाएंगे, तब उन्हें फिर कर्म नहीं कहेंगे। वे फिर जड़ कहलाएंगे, पुद्गलपरमाणु कहलाएंगे या पर्यायान्तर से और कुछ भी कहलाएंगे,पर कर्म नहीं कहलाएंगे । अभिप्राय यह है, कि कर्म भी एक प्रकार के पुद्गल हैं। उन पुद्गलों में कर्म-रूप पर्याय का होना अशुद्ध पर्याय है, क्योंकि वह चेतन के द्वारा उत्पन्न हुआ है। आत्मा में क्रोध, मान, माया, लोभ या राग-द्वेष रूप जो विकार उत्पन्न होते हैं, उनके निमित्तसे वह स्व-क्षेत्रावगाही उन पुद्गलों को ग्रहण करती है, और फिर ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि के रूप में उन्हें परिणत करती है। यह परिणति आत्मा के द्वारा ही होती है । इस कारण पुद्गलों के उस परिवर्तन को हम पुद्गल की अशुद्ध पर्याय कहते हैं। ये इन्द्रियाँ, शरीर और मन भी जब तक आत्मा के साथ हैं, तब तक हो शरीर को शरीर, इन्द्रिय को इन्द्रिय और मन को मन कहते हैं । और जब आत्मा इन सबको छोड़ देती है, तब फिर आगम की भाषा में शरीर, शरीर नहीं कहलाता, इन्द्रिय, इन्द्रिय नहीं कहलाती और मन, मन नहीं कहलाता। __ यों तो, आप आत्मा के द्वारा छोड़ देने पर भी शरीर को शरीर कहते रहते हैं, पर वास्तव में ऐसा कहकर आप पुरानी याद को ताजा करते हैं । वह शरीर पहले आत्मा के साथ रहता था, इसी कारण उसे शरीर कहते हैं और वह भी कुछ समय तक ही कहते हैं-जब तक उसकी आकृति वही बनी रहती है । राख बन जाने पर उसे कौन शरीर कहता है ? यदि वह शरीर है, तो किसी न किसी का होना चाहिए । जब आत्मा उसे छोड़ कर चली गई है, तब वह किस का शरीर है ? अतएव इस रूप में वह शरीर, शरीर नहीं माना जाता और इन्द्रिय, इन्द्रिय नहीं मानी जाती और मन, मन नहीं माना जाता । आगम को भाषा में वे सब पुद्गल माने जाते हैं। इस प्रकार जड़ पुद्गल और आत्मा के द्वारा एक दूसरे में अशुद्ध पर्याय उत्पन्न किए जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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