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अन्तदन्द्र नाहं जानामि केयूरे, नाहं जानामि कुण्डले ।
नूपुरे स्वभिजानामि, नित्यं पादाभिवन्दनात् ।। भैया, मैं नहीं कह सकता, कि यह केयूर सीता का है, या नहीं ? मैं यह भी नहीं जानता कि कौन-से कुण्डल सीता के हैं और कौन से नहीं । मैं तो केवल उनके नूपुरों को पहचानता है। जब मैं माता सीता के चरणों में नमस्कार करने के लिए जाता था, और पैर पड़ता था, तब उनके पैरों पर ही मेरी निगाह रहती थी। इस कारण पैरों में पहरे हुए नूपुरों को तो मैं पहचान सकता हूँ। मैंने उनके दूसरे गहने नहीं
यह कोई साधारण बात नहीं है, बहुत बड़ी बात है। मनुष्य का जीवन कितनी ऊँचाई तक पहुंच सकता है ? यह उक्ति, इस बात का निर्देश करने वाली मानव-संस्कृति में रोशनी की एक ऊँची मीनार है। आज के भारतवासी जिस रूप में रह रहे हैं, और अपनी संस्कृति बिगाड़ रहे हैं, वासना के और भोगोपभोग के जिस विषाक्त वातावरण में जीवन गुजार रहे हैं, उनके पास लक्ष्मणकी इस सर्वतः प्रकाशमान ऊँचाई को देखने और परखने के लिए सतेज एवं निर्मल आँखें कहां हैं ?
शायद तर्क आ जाए, कि यह तो अलंकार है । ऐसा होना सम्भव नहीं है। किन्तु मैं समझता हूँ, कि आप प्राज के अपने बौने गज से पूर्वजों को न नापें । आप राम, लक्ष्मण, महावीर और बुद्ध को अपने गज से नहीं नाप सकते, क्योंकि उनका जीवन इतना महान् है, कि आपका गज उनके विराट् व्यक्तित्व के समक्ष बहुत छोटा पड़ता है । वे इस क्षुद्र गज से नहीं नापे जा सकते।
तो, लक्ष्मण की ज़िन्दगी भी ज़िन्दगी है । वे भी सीता से स्नेह रखते थे। उनके हृदय में भी सीता के प्रति आकर्षण था और इतना आकर्षण था, कि सीता के लिए जितने राम नहीं रोए, उससे अधिक कहीं वे रोए ।
यह आकर्षण है, कि जिसमें जीवन की ऊँचाई और मिठास मालूम होती है। जीवन की मधुरिमा और पवित्रता झलकती है ।
दूसरी ओर रावण का भी सीता के प्रति आकर्षण था । पर, वह बुरे विचारों और वासना के कारण विष मालूम होता है । कितना गन्दा, कितना कुत्सित ?
इस तरह दोनों ही जीवन के एक ही केन्द्र में खड़े हुए थे, किन्तु लक्ष्मण देवता के रूप में और रावण राक्षस के रूप में प्रसिद्ध हुआ। ___ मगर लक्ष्मण और रावण के जीवन के विषय में कोई अच्छा-बुरा फैसला कर लेने से ही हमारा काम नहीं चल सकता है। हमें अपने निज के जीवन के बारे में भी निर्णय करना होगा । सोचना होगा और विश्लेषण करना होगा, कि अन्दर में हम
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