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अन्तत यदि बुरी वृत्तियाँ विजेता के रूप में अपना सिर उठा लेती हैं, तो जीवन बर्बाद हो जाता है।
तो क्या, यह समझ लिया जाए, कि मनुष्य अपनी वृत्तियों का गुलाम है ? औ उनके जय-पराजय पर ही उसकी किस्मत का फैसला होना है ?
नहीं, हमें स्मरण रखना चाहिए कि समस्त वत्तियां, चाहे वे भली हैं या बुर मनुष्य की. अपनी ही हैं । वह जहाँ उनसे निर्मित होता है, वहां उनका निर्माण : करता है । उनका निर्माता मनुष्य से भिन्न दूसरा कोई नहीं है । इसीलिए तो का गया था :
"अप्पा कत्ता विकत्ता य।" आत्मा ही कर्म का कर्ता है और आत्मा ही कर्म-फल का भोक्ता है।
अपनी वृत्तियों का निर्माण करना, एक पर दूसरी को विजयी बनाना, यह आत्मा का ही- अपना- स्वतंत्र अधिकार है । यदि ऐसा न होता, तो मनुष्य के सारे सत्प्रयास, मनुष्य की समस्त साधना, निष्फल ही न हो जाती ?
. इसीलिए तो आनन्द गृहपति ने, अपने जीवन में साधना का मार्ग तलाश किया। उसने भगवान् महावीर के चरणों में संकल्प किया था कि आज से बुरे विचारों में, दुवृत्तियों में नहीं रहना है, और जीवन की सही राह, जो अहिंसा और सदाचरण की राह है, उस पर चलना है। आनन्द स्वदार सन्तोष व्रत के रूप में ब्रह्मचर्य की राह पर चल पड़ा।
जो आनन्द ने किया, वही आप कर सकते हैं, वही सब कर सकते हैं । यदि न कर सकते होते, तो आनन्द का और दूसरे महान् साधकों का पुण्य-चरित लिखा ही क्यों जाता ? उसे कोई क्यों पढ़ता और क्यों सुनता ?
हमारे जीवन में दो धाराएं रहती हैं-एक मोह की, दूसरी प्रेम की। मोह में वासना, विकार और अब्रह्मचर्य है और स्त्री पुरुष में परस्पर एक दूसरे के लिए आकर्षण है । वह आकर्षण इतना प्रबल है कि एक दूसरे के साथ अपने जीवन को जोड़ देना चाहता है । वासना किसी न किसी के साथ सम्पर्क कायम करती है और जीवन का साथी बनाती है। __ और जहाँ प्रेम है, आकर्षण वहाँ भी होता है। मनुष्य अपने आप में अकेला है परन्तु अकेला पड़कर ही न रह जाए, इसलिए वह भी दूसरे से सम्बन्ध जोड़ना चाहता है। विश्व में वह भी स्नेह-सम्बन्ध कायम करना चाहता है।
इस प्रकार मोह और प्रेम में ऊपर दिखाई देने वाला आकर्षण एक-सा है । किन्तु दोनों के आकर्षण भिन्न-भिन्न प्रकार के हैं । उनकी भिन्नता को ठीक तरह समझने के
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