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________________ ३६ गाँव के बूढ़े नेता की कहानी समाप्त हो गई; किन्तु जीवन-निर्माण की कहानी कहाँ समाप्त होती है ? वह तो निरन्तर आगे बढ़ती है। आप समझ गए न कहानी का सारांश ? कहानी का सत्य है : ''प्राप भला, तो जग भला " आप भले हैं, तो सारा संसार आपके लिए भला है । आप भले नहीं हैं, और आपके हृदय में घृणा तथा द्वेष की ज्वालाए जल रही हैं, तो आप संसार के एक किनारे से दूसरे किनारे तक कहीं भी जाएं, आपको कहीं भी अच्छाई या भलाई नहीं मिलेगी । मिलेगी, तो भी आप उसे घृणा की दृष्टि से ही देखेंगे । अन्तरन्तु मतलब यह है, कि पहले अन्दर के जीवन को स्वच्छ करने का प्रयत्न किया जाना चाहिए। जिसने अपनी अन्तरात्मा को स्वच्छ बना लिया, उसने स्वयं अपने को अपना मित्र बना लिया। इतना ही नहीं, उसने सारे संसार को भी अपना मित्र बना लिया । और जो अपनी अन्तरात्मा को विकारों और वासनाओं की तीव्रता के कारण मलिन बनाता है, वह स्वयं अपना शत्रु बन जाता है और फिर सारा संसार उसे शत्रु के रूप में दिखाई देने लगता है । उत्तराध्ययन सूत्र में बड़े ही सुन्दर रूप से इस विषय का निरूपण किया गया हैं- अप्पा नई वेयरणी, अप्पा में कूडसामली । अप्पा कामदुहा घेणू, अप्पा में नंदणं वर्ण ॥ अप्पा कत्ता विकत्ता यदुहाण य, सुहाण य । अप्पा मित्तममित्त च, दुप्पट्टयं सुप्पट्टों ॥ भगवान् कहते हैं-नरक की भयंकर वैतरणी नदी और कूटशाल्मली वृक्ष आत्मा ही है । आत्मा ही अभीष्ट सुखप्रद काम धेनु गाय है और सुन्दर नन्दन वन भी आत्मा ही है । अन्तरात्मा हो दुःखों और सुखों का कत्तों एवं अपने मित्र हो और स्वयं अपने शत्रु हो । जब तुम सही के मित्र बन जाते हो, और जब सही राह छोड़ कर गलत अपने शत्रु बन जाते हो । Jain Education International भोक्ता है । अरे, तुम स्वयं ही राह पर चलते हो, तब स्वयं राह पर चल पड़ते हो, तब प्रश्न हो सकता है, वैतरणी नदी और कूटशाल्मली वृक्ष, जो नरक दुःख के प्रतीक हैं, और कामधेनु तथा नन्दनवन, जो स्वर्ग सुख के प्रतीक हैं, वे आत्म-रूप कैसे हो सकते हैं ? अगर आत्मा स्वयं अपना मित्र है, तो शत्रु कैसे हो सकता है ? और यदि शत्रु है, तो मित्र कैसे हो सकता है ? इस प्रश्न का उत्तर यही है, कि आत्मा में दुर्वृत्तियाँ भी हैं और सद्वृत्तियाँ भी हैं । जैसा कि अभी कहा जा चुका है, दोनों में निरन्तर युद्ध होता रहता है । हृदय For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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