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अन्तद्वन्द्र
३७ कुछ देर हुई थी, कि एक दूसरा मुसाफिर आया। वह नमस्कार करके एक ओर खड़ा हो गया। जब तकं बात चलती रही, तब तक वह बीच में नहीं बोला। चुपचाप खड़ा रहा। आखिर बुड्ढे ने उससे पूछा--"कहो भाई, क्या बात है ?"
उसने भी वही कहा-"मैं बड़ी दूर से आरहा है, थक गया हैं, अतः मालूम करना चाहता हूँ, कि यह गाँव कैसा है ? गाँव की क्या स्थिति है ?"
बुड्ढा बोला-"भाई, गाँव तो जैसा होता है, वैसा ही है।"
मुसाफिर-"यह तो मैं भी देख रहा हूँ, किन्तु यहाँ के रहने वाला का आचरण कैसा है ? यहाँ मुझे कुछ प्रेम मिल सकेगा या नहीं ? भोजन-पानी मिल सकेगा कि नहीं ?" .
बूढ़े ने फिर उसी तरह उसके अपने गांव के बारे में पूछा कि "वह कैसा है ?"
मुसाफिर ने कहा- "मेरे गाँव के लिए क्या पूछते हो ? मेरा गाँव तो स्वर्ग है। वहाँ मैंने अभी तक के दिन बड़े आनन्द में बिताए हैं, किन्तु दुर्भाग्य मेरा पीछा नहीं छोड़ रहा था । यद्यपि मेरे साथियों ने मेरे जीवन में रस लेने की बहुत कोशिश की, कई साथियों ने तो मेरे लिए स्वयं कष्ट भी उठाया, किन्तु मेरे भाग्य ने साथ नहीं दिया। तब मैंने सोचा-यहां से चलू, और दूसरी जगह अपना भाग्य आजमाऊँ । सम्भव है, वहाँ दो रोटियां मिल जाएं और कोई धंधा लग जाए। मेरा मन तो अब भी मेरे गांव में है, शरीर से ही मैं यहाँ आया हूँ। अच्छे दिन आने पर, मैं फिर अपने गांव को ही लौट जाऊंगा।"
मुसाफिर की बात ध्यान से सुनने के बाद बूढ़े ने कहा-"जैसा अच्छा तुम्हारा गाँव है, उससे कहीं अधिक अच्छा हमारा गाँव है । चलो, हमारे गांव में ठहरो। हम पीछे-पीछे आ रहे हैं। अब हम तुम्हें अन्यत्र जाने नहीं देंगे। आने वाले अतिथि की रोजी-रोटी का प्रश्न हल न करे, वह गांव ही कैसा ? वही गांव आदर्श गांव है, जहाँ कोई कितना ही क्यों न रोता हुआ आए, किन्तु जब जाए, तो हँसता हुआ जाए। हमारे गांव की यही महिमा है। यहाँ पर अतिथि जन का बड़ा आदर एवं सत्कार होता है।"
बुड्ढे की भलमनसाहत देख कर और उसके आग्रह से आश्वस्त होकर मुसाफिर गांव की ओर चला गया।
लड़कों के दिमाग में थोड़ी देर पहले की और अब की बातों में द्वन्द्व हो गया। कुतूहल के कारण उनका हृदय चंचल हो उठा । लड़के सोच रहे थे-"बाबा भी विचित्र है। पहले तो अपने गांव को बुरा बतला रहे थे । और अब कहते हैं-गांव क्या है, स्वर्ग
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