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ब्रह्मचर्य-दर्शन में मन एवं इन्द्रियों की दासता रहती है, और ब्रह्मचर्य में मन एवं इन्द्रियों की वृत्ति पर प्रभुता रहती है।
आज जिस व्रत के वर्णन का उपक्रम किया है, वह ब्रह्मचर्य व्रत स्वधर्म हैआत्मा का स्वभाव है। ब्रह्म में अर्थात् आत्मा में, विचरना अर्थात् रमण करना ही सच्चा ब्रह्मचर्य है । इस प्रकार के ब्रह्मचर्य को जिसने धारण कर लिया होगा, वह कभी विभाव में पड़ने वाला नहीं रहेगा। संसार की वैभाविक प्रवृत्तियाँ उसे निःस्वाद और निःसार जान पड़ेंगी। उसे अक्षय शान्ति, अखण्ड सन्तोष और अनन्त आनन्द प्राप्त होगा।
व्यावर
सदाचार और संयम धर्म का सूक्ष्म रूप है, जो अन्दर रहता है। और साम्प्रदायिक क्रियाकाण्ड तथा वेश-भूषा उसका स्थूल रूप है, जिसे हर कोई देख सकता है, जान सकता है। धर्म के सूक्ष्म रूप की रक्षा के लिए बाहर का स्थूल आवरण अावश्यक है। परन्तु यदि ऐसा हो, कि सुन्दर, सचित्र, रंग-विरंगा लिफाफा हाथ में प्रा जाए, और खोलने पर पत्र न मिले, तो यह कितना मर्म-भेदक परिहास है। आजकल के धर्म-पन्थों को इससे बचना चाहिए।
मनोनिग्रह का अपने आप में कोई अर्थ नहीं है । हजारों दार्शनिक पुकारते है, मन को रोको, मन को वश में करो। परन्तु. मैं पूछता हूंमन को रोक कर आखिर करना क्या है ? यदि मन को अशुभ संकल्पों से रोक कर शुभ संकल्पों के मार्ग पर नहीं चलाया, तो फिर वही दशा होगी कि घोड़े को गलत राह पर जाने से रोक तो लिया, परन्तु वहीं लगाम पकड़े खड़े रहे । उसे ठीक राह पर न डाल सके।
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