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________________ प्रात्म-शोधन यह है सम्यग्दर्शन की, भेद-विज्ञान की महिमा ! भगवान् महावीर ने गौतम के द्वारा भेद विज्ञान का बीजारोपण कराया, और किसान के लिए अवश्यं भावी मुक्त होने का पथ प्रशस्त कर दिया। भले ही, वह उस समय भटक गया, परन्तु सदा काल भटका नहीं रहेगा । एक बार भी यदि अंशतः भी स्वभाव में आया कि बेड़ा पार ! हिंसा, झूठ, चोरी और अब्रह्मचर्य-सब विभाव हैं, विकार हैं। इन विभावों को नष्ट करना है, तो अपने असली स्वरूप को, आत्मा की स्वाभाविक परिणति को पकड़ना चाहिए । विभाव से स्वभाव में आना कर्मोदय का फल नहीं, स्वभाव से विभाव की ओर जाना कर्मोदय का फल है । यह कर्मोदय का फल है और साथ ही कर्म-बन्ध का कारण भी है। स्वभाव मुक्ति है, विभाव बन्धन है । मिथ्यात्व आदि विभाव हैं, अतएव बन्धन हैं । जब कि सम्यक्त्व आदि स्वभाव हैं-कर्म और उसके फल से छूटना है। इस प्रकार सही दृष्टिकोण पाकर और अपनी भावनाओं का सम्यक रूप से विश्लेषण करके जीवन में स्वभाव की ओर बढ़ने की कोशिश करनी चाहिए और विभाव को छोड़ते चलने का प्रयास करना चाहिए। ज्यों-ज्यों आत्मा विभाव से दूर होता जाएगा, त्यों-त्यों अपने असली स्वरूप के निकटतर होता जाएगा, यही साधना का मूल-मंत्र है । इस में ही जीवन की सफलता और कृतार्थता है। स्वभाव में पूरी तरह स्थिर हो जाना ही जीवन की चरम सिद्धि है । इस जीवन में हमें शत्रुओं से लड़ना है और उन्हें पछाड़ना है। परन्तु अपने असली शत्रुओं को पहचान लेना चाहिए। हमारे असली शत्रु हमारे मनोगत विकार ही हैं, विभाव ही हैं। हमें इन्हें दुर्बल और क्षीण करना है और 'स्व' का बल बढ़ाना है। गीताकार भी यही कहते हैं श्रेयान स्वधर्मो विगुणः, परधर्मात्स्वनुष्ठितान् । स्वधर्म निषनं श्रेयः, परषों भयावहः ॥ स्वधर्म-स्वगुण अर्थात् आत्मा का निज रूप ही श्रेयस्कर है और परधर्म अर्थात वैभाविक परिणति भयंकर है । स्वधर्म में ही मृत्यु प्राप्त करना कल्याण-कर है। परधर्म मनुष्य को दुर्गति और दुरवस्था में ले जाता है । ब्रह्मचर्य स्वभाव है, आत्मा की स्व-परिणति है और अहंचर्य विभाव है, आत्मा की पर-परिणति है । यहाँ 'अहं' देहाभिमान अर्थ में है । ब्रह्मचर्य का अर्थ है-जिस की चर्या अर्थात् गमन ब्रह्म की ओर हो, आत्मा की ओर हो। अहंचर्य का अर्थ है, जिस की चर्या, जिसका गमन शरीर की ओर हो, देह-भाव की ओर हो । ब्रह्मचारी बाहर से अन्दर की ओर आता है, और अहंचारी अन्दर से बाहर की ओर जाता है । अहंचर्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003419
Book TitleBramhacharya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1982
Total Pages250
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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